Highlights
- बंटवारे के समय हुई लाखों लोगों की हत्या
- बच्चों को परिवार संग घर छोड़कर जाना पड़ा
- पाकिस्तान से भारत आए थे हिंदू और सिख लोग
Partition of India: बस एक दिन बाद 15 अगस्त को हमारे देश को आजाद हुए 75 साल पूरे हो जाएंगे। देशभर में इस बार स्वतंत्रता दिवस आजादी के अमृत महोत्सव के तौर पर बड़ी ही धूमधाम से मनाया जा रहा है। 1947 में आजादी का दिन हमारे देश के लिए बेहद खुशी देने वाला था क्योंकि इसके लिए बहुत से लोगों ने अपनी जान कुर्बान कर दी थी। लेकिन इसी दिन से वो गहरा दर्द भी जुड़ा है, जो भुलाए नहीं भूला जा सकता। आजादी के बाद आधी रात को हमारे देश के दो हिस्से हो गए। पाकिस्तान नाम का एक नया देश इस्लाम के आधार पर बनाया गया, जो आज कंगाली के साए में जीने को मजबूर है।
इसके जन्म के बाद ही दोनों तरफ के लोगों को अपने घरों को छोड़कर जाना पड़ा। पाकिस्तान में रहने वाले बहुत से लोग भारत आ गए, जबकि भारत में रहने वाले कई लोग पाकिस्तान की तरफ चल दिए। इस दौरान दोनों ही देशों में हिंसक दंगे हुए, महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ, बच्चों को उनके परिवारों के सामने मार दिया गया। आज हम आपको उसी समय की कहानी बताने जा रहे हैं। लेकिन ये कहानी किसी बड़े की नजर से नहीं बल्कि बच्चों की नजर से बताई जाएगी।
अपने घरों को छोड़कर गए बच्चे
सीएनएन की रिपोर्ट के अनुसार, कहानी कुछ इस तरह शुरू होती है... एक छोटी सी बच्ची रात को अचानक उठी। उसके परिवार को लाहौर के अपने घर से भारत की तरफ जाना था। लाहौर नए बने देश पाकिस्तान के हिस्से में आ गया था। इस बच्ची ने रास्ते में सड़क पर पलटी हुई बैलगाड़ियां, जलते हुए गांव और नहर में क्षत-विक्षत शव तैरते देखे। इस बच्ची की ही तरह एक लड़का भी अपना घर छोड़कर जा रहा था। मगर अपोजिट डायरेक्शन में। यानी भारत छोड़कर पाकिस्तान की तरफ। ट्रक से यात्रा करते हुए, उसने सड़क के किनारे गिद्धों को लोगों के शव खाते हुए देखा। उसके छोटे हाथों में बंदूक थी।
अब 75 साल बाद... इनकी उम्र 80 साल के करीब हो गई है। लेकिन बंटवारे की वो यादें आज भी इनके जहन में पूरी तरह तरोताजा हैं। दरअसल भारत का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था। नया देश पाकिस्तान मुस्लिम धर्म की नींव पर बनाया गया। जिसके बनने के बाद बड़ी तादाद में मुसलमान पाकिस्तान चले गए, जबकि इस नए देश के हिस्से में रहने वाले हिंदू और सिख भारत आ गए। विद्वानों के अनुसार, 1.5 करोड़ लोग अपने घरों को छोड़कर गए और 5 लाख से 20 लाख लोगों की पलायन के दौरान मौत हो गई।
पाकिस्तान से भारत गई थी 5 साल की बच्ची
रिपोर्ट के अनुसार, बलजीत ढिल्लन विक्रम सिंह ने अपनी उस दौरान की कुछ यादें साझा की हैं। भारत के विभाजन के वक्त उनकी उम्र 5 साल थी। वह लाहौर (आज पाकिस्तान में है) के पास स्थित अपने गांव से भारत के राजस्थान के श्री गंगानगर आई थीं। फिलहाल वह अमेरिका के कैलिफोर्निया में लॉस अल्टोस हिल्स में रहती हैं। वह कहती हैं, 'मैं ढिल्लों कुल में पैदा हुई थी, जिन्हें पंजाब के शेर कहा जाता है, कई गांवों के जमींदार।'
उन्होंने बताया, 'हमारा गांव नयनकी लाहौर के बाहर था, जो अब पाकिस्तान में है। हमारे पास सभी सुविधाएं थीं, सवारी करने के लिए घोड़े की बग्गी, खेलने के लिए पिल्ले, उड़ाने के लिए संदेश भेजने वाले कबूतर। सभी बड़ों ने खूब प्यार दिया। हमें मुस्लिम, सिख या हिंदू में अंतर नहीं पता था। फिर वो भयानक रात आई, जब मैं अपने दो छोटे भाइयों के साथ उठी और आनन-फानन में अपने पिता, मां, चाचा और चाची के साथ एक जीप में बैठी। आज भी 80 साल की उम्र में मुझे वो पूरा दृश्य याद है।
लगभग 6 साल की उम्र में मैंने भयावहता देखी, नहर में तैरते हुए मृत लोग, क्षत-विक्षत शव, पलटी हुई लॉरी, कार, बैलगाड़ियां और भीषण खून से लथपथ लोग। मैंने हथियारबंद लोग देखे- सफेद वर्दी में पाकिस्तान की ओर के सैनिक आ रहे थे। हम पर राइफल रख रहे थे, मेरी मां हिम्मत दिखाकर जीप से कूदीं और अपने छोटे बच्चों के लिए दया की भीख मांगते हुए उनके पैरों में अपना दुपट्टा रख दिया। न वहां कोई मार्कर था और न ही क्रॉसिंग। किसी को नहीं पता था कि सीमा कहां बनाई गई है।'
आग से लिपटे गांव दिखाई दिए
उन्होंने बताया, 'मुझे रास्ते में आग की लपटों से घिरा एक गांव याद है। सफेद वर्दी वाले पुरुषों ने इसे जलाने का आदेश दिया था। हम एक बार फिर पीछे की सड़कों से भागे और तरनतारन साहिब में अपने नाना के घर पर सुरक्षित रहने की कोशिश कर रहे थे। अपने नानक (नाना-नानी) के साथ थोड़े समय रहने के बाद हम राजस्थान में अपने नए घर श्री गंगानगर चले गए। कम से कम हमारे पास जाने के लिए जगह थी। मेरी मां ने कहा कि अब हम वास्तव में शरणार्थी हैं। हम एक कमरे में आए, एक टिन की छत वाली रसोई, कोई नौकर नहीं, कोई हरे-भरे आम के पेड़ नहीं, कोई बागीचा नहीं। धूल भरी आंधी ने सब कुछ तबाह कर दिया था।
हमने उसी तालाब से पानी पिया, जिससे जानवर पी रहे थे। हमने ऊंट की सवारी की, बगरदी (राजस्थानी बोली) सीखी, हम मिट्टी के तेल की लालटेन की रोशनी से पढ़ते थे, ग्रामीणों की तरह घर में भूरे रंग के कपड़े पहनते थे। जीवन मुश्किल था, गर्म और धूल भरी गर्मियां, सर्दियों में जमी हुई रेगिस्तानी ठंड। बड़ों ने कभी शिकायत नहीं की। वो ईंटें लाए और घर बनाने के लिए उसमें सीमेंट मिलाया। उन्होंने जोतने और रोपने के लिए खेतों को समतल किया। इन शब्दों को लिखने से मुझे मेरे दादाजी से जुड़ा एक वाक्या याद आया, जब उन्होंने मेरी मां के हाथों रोते हुए एक गिलास पानी लिया था, जिसे उन्होंने मलमल की तीन परतों से छाना था।
वह रो रहे थे क्योंकि अधिक काम करने की वजह से मेरी मां के हाथ अब पहले जैसे नहीं रहे थे। मेरे नायक मेरे दादा, मां और पिता हैं। उन्होंने हमें विभिन्न कॉलेजों और सैन्य अकादमियों में भेजने के लिए खूब बलिदान दिए। मेरी शादी 1959 में स्टैनफोर्ड से ग्रेजुएशन करने वाले इंजीनियर से हुई। हम 1967 में अमेरिका आ गए। पहले वह आए, फिर मैं अपनी चार बेटियों के साथ आई। मैंने बच्चों को संभालने का काम किया। जिसके लिए एक घंटे के 50 सेंट लेती थी, ताकि अपनी बेटियों को पाल सकूं। मैंने विभाजन से मेहनत, तप और धैर्य करना सीखा है। आज मेरे पास सबकुछ है लेकिन मैं एक सामान्य जिदंगी जी रही हूं।'
भारत से पाकिस्तान गया था 13 साल लड़का
हुसैन जिया भारत के बंटवारे के समय 13 साल के थे। वह भारत के जालंधर से पाकिस्तान के सियालकोट गए, जो आज पाकिस्तान में स्थित है। बाद में वह पाकिस्तानी नौसेना में शामिल हुए। उन्होंने बंटवारे पर कई किताबें लिखीं हैं। उन्होंने उस दौरान की पूरी कहानी सुनाते हुए कहा, 'हम खड़े होकर छत की तरफ देख रहे थे, हमारे हाथों में बंदूकें थीं। मेरे पिता ने कहा, "अगर वह पहले मुझे मारते हैं, तो भी सभी कारतूस खत्म मत करना। सुनिश्चित करना कि खुद मरने से पहले उन्हें मार दो।" मुझे इस दिन वो भयानक वक्त याद आता है।'
उन्होंने कहा, 'विभाजन के समय मुझे 14 साल का होने में कुछ ही महीने बचे थे और मैं जालंधर में रह रहा था। मुस्लिम बहुल जालंधर जिला, जो अब भारत के पंजाब राज्य का हिस्सा है। मैं बस्ती दानिशमंडन में रहता था। वो जगह हजारों मुस्लिम प्रवासियों से भरी हुई थी। इनमें कई घायल और बीमार थे। इन्हें न तो खाना मिल रहा था और न ही स्वास्थ्य सुविधा। रात के वक्त उनमें से कई बुरा सपना देखने के बाद रोने लगा, तब मैं और मेरे पिता बंदूक लेकर छत की तरफ भागे। यह "जत्थों" (सिखों के सशस्त्र समूह) से बचाव के लिए किया गया, जो नियमित रूप से रात में मुस्लिम बस्तियों पर हमला करते थे।
उन्होंने कहा, 'मैं पठानों के एक समुदाय से हूं, जो 330 से अधिक वर्षों से जालंधर शहर के बाहरी इलाके में बस्तियों में रह रहा था। मेरे पिता एक जज थे, उन्होंने विभाजन के बाद पाकिस्तान में सेवा करने का विकल्प चुना। 27 अगस्त को पाकिस्तान सरकार ने सरकारी अधिकारियों और उनके परिवारों को निकालने के लिए दो ट्रक बस्ती दानिशमंडन भेजे। लाहौर का रास्ता ज्यादातर सुनसान था क्योंकि बड़े पैमाने पर पलायन अभी शुरू नहीं हुआ था। लेकिन सरकार के टूटने, हिंसा और क्रूरता के सबूत दिख रहे थे। हमने बिखरा हुआ सामान, कई शव, उड़ते गिद्ध और सड़क के किनारे कुत्तों को देखा।'
अमृतसर में रोके गए थे ट्रक
जिया ने बताया, 'दोनों ट्रकों को पाकिस्तान की सीमा से करीब 15 मील दूर सिखों के गढ़ अमृतसर में रोका गया। तभी भाले, तलवार और खंजर से लैस सिख ट्रकों के चारों ओर इकट्ठा होने लगे। एक बार फिर हम अपनी बंदूकों से उन्हें दूर भगाने में सफल रहे। अमृतसर से निकलते ही कोई चिल्लाया, "हम पाकिस्तान में हैं!" लेकिन चेक पोस्ट नहीं था। सभी लोग बाहर निकले और जमीन को चूमा। मुझे याद है कि यह किरकिरी थी और उसका स्वाद खारा था।
लाहौर में हमें एक हिंदू परिवार के घर में बिना किसी फर्नीचर के एक कमरे में रखा गया था, वो लोग भारत चले गए थे। मेरे पिता को एक विशाल शरणार्थी शिविर में मदद करने के लिए नियुक्त किया गया। दफ्तर, व्यवसाय, दुकानें, स्कूल, अस्पताल और अन्य संस्थान बंद होने से आमतौर पर व्यस्त शहर वीरान नजर आते थे। (इनके मालिक अधिकतर वो हिंदू और सिख थे, जो बहुत पहले भारत आ गए थे)।
एक बार मैंने देखा कि मेरे पिता सड़क पर गिरे हुए एक व्यक्ति की मदद करने के लिए दौड़े। तब पता चला कि वह एक हिंदू था, जिसे छुरा घोंपा गया था। वह पहले ही मर चुका था या मेरे पिता की गोद में मर गया। उसके हाथ में पुलिस सुरक्षा की मांग करने वाला एक आवेदन था। वह कुछ कदम आगे आ जाता तो स्थानीय पुलिस थाने के अंदर सुरक्षित होता। अक्टूबर की शुरुआत में, हम पाकिस्तान के पंजाब के सियालकोट शहर में चले गए और एक बंद इमारत के बगल में एक घर में रहते थे।
एक दिन मैंने उसकी एक छोटी सी खुली खिड़की से किसी को देखा और अपनी मां को बताया। उन्होंने मुझसे कहा कि किसी और को मत बताना। फिर उन्होंने शाकाहारी भोजन तैयार किया और मुझे कहा कि इसे खिड़की पर किसी के लिए रख दो। वहां कोई हिंदू बुजुर्ग था, जो अपने परिवार के भारत प्रवास के दौरान पीछे छूट गया था। मेरी मां तब तक उसे खाना देती रहीं, जब तक कि उसे भारत भेजने की व्यवस्था नहीं हो गई।'