Highlights
- हिटलर ने 1920 में अपनाया था स्वास्तिक
- हकेनक्रेज के रंगों के बारे में बताया गया
- भारत के स्वास्तिक से हुई चिन्ह की तुलना
Hitler Swastika: ऑस्ट्रेलिया के राज्य न्यू साउथ वेल्स में स्वास्तिक पर प्रतिबंध के बाद एक बार फिर ये चिन्ह चर्चा में आ गया है। राज्य के निचले और ऊपरी सदन में इससे जुड़ा एक बिल पास हुआ है, जिसे कानून का रूप दे दिया गया है। अगर कोई इसका इस्तेमाल करता पाया गया, तो उसे एक साल की जेल और एक लाख डॉलर का जुर्माना भरना पड़ेगा। इसका कहीं प्रदर्शन नहीं किया जाएगा। लेकिन इसका इस्तेमाल शैक्षिक उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है। साथ ही धार्मिक उद्देश्यों के लिए हिंदू, जैन और बौद्ध धर्म के लोग भी इसे इस्तेमाल कर सकते हैं। तो ऐसे में यहां रहने वाले इन धर्मों के लोगों को कोई जेल या सजा नहीं होगी। हालांकि राज्य ने इसे नाजी प्रतीक बताया है। जबकि असलियत ये है कि हिंदू, बौद्ध और जैन धर्म के स्वास्तिक और नाजियों के हकेनक्रेज में बड़ा अंतर है।
हिंदू और नाजी वाले चिन्ह में अंतर क्या है?
भारत की प्राचीन सभ्यता से जुड़ा स्वस्तिक बनावट और अर्थ दोनों ही मामलों में हिटलर के हकेनक्रेज से अलग है। हिंदू धर्म में स्वास्तिक को बनाते समय उसके चारों कोनों पर बिंदू लगाए जाते हैं, जो हमारे चारों वेदों का प्रतीक हैं। इसे हिंदू धर्म में शुभ और तरक्की का प्रतीक कहा जाता है। इसकी सभी चार भुजाएं 90 डिग्री पर मुड़ी होती हैं। जैन धर्म में इसे सातवें तीर्थंकर का प्रतीक बताते हैं और बौद्ध धर्म में बुद्ध के पैरों या पदचिन्हों के निशान का प्रतीक माना जाता है। इसे किसी भी शुभ काम को करने से पहले बनाया जाता है। धार्मिक स्वास्तिक में पीले और लाल रंग का इस्तेमाल होता है।
वहीं नाजी झंडे में सफेद रंग की गोलाकार पट्टी में काले रंग का स्वास्तिक जैसा चिन्ह बना होता है। नाजी संघर्ष के प्रतीक के तौर पर इसका इस्तेमाल किया करते थे। इसमें लाल रंग नाजी मूवमेंट और समाजवाद का प्रतीक है। सफेद रंग जर्मन राष्ट्रवाद, काला रंग संपूर्ण उद्देश्य/मकसद, स्वास्तिक नाजी लोगों के संघर्ष और आर्यन समाज की जीत का प्रतीक है। इसे 45 डिग्री में घुमाकर बनाया गया है। नाजियों का हकेनक्रेन यहूदी विरोधी विचारधारा, नस्लवाद, फासीवाद और नरसंहार से जुड़ा है।
हिटलर ने 102 साल पहले इसे क्यों अपनाया?
हिटलर की आत्मकथा 'मीन काम्फ' में स्वास्तिक जैसे दिखने वाले नाजी प्रतीक चिन्ह की पूरी कहानी बताई गई है। ये कहानी शुरू होती है, 102 साल पहले से। यानी साल 1920 से। पहले विश्व युद्ध में करारी हार के बाद हिटलर अपनी नाजी सेना को ताकतवर बनाना चाहता था। उसी समय उसके दिमाग में झंडा बनाने का ख्याल आया। एक ऐसा झंडा बनाने का विचार आया, जो जर्मन लोगों और उसकी सेनाओं का प्रतिनिधित्व करे। जिसे देखते ही नाजी लोगों मे जोश भर जाए। इस बात का जिक्र हिटलर की आत्मकथा में है।
ठीक इसी साल 1920 में नाजी जर्मनी को उनका झंडा मिल गया था। इस लाल रंग के झंडे के ठीक बीच में सफेद रंग का गोला बना था। फिर इसी गोले के बीचों बीच 45 डिग्री का झुका हुआ स्वास्तिक का इस्तेमाल हुआ। इसे हकेनक्रेज नाम दिया गया था। हिटलर की आत्मकथा मीन काम्फ के अनुसार, ये झंडा न केवल आदर्श जर्मन साम्राज्य का प्रतीक होगा, बल्कि नाजी लोगों के बेहतर भविष्य का भी प्रतीक माना जाएगा। झंडे में इस्तेमाल होने वाला लाल रंग नाजी मूवमेंट और समाजवाद को दिखाता था। इसका सफेद रंग जर्मन राष्ट्रवाद का प्रतीक था। वहीं स्वास्तिक को नाजी लोगों के संघर्ष का प्रतीक बताया गया। इसे आर्यन समाज की जीत का प्रतीक भी कहा गया।
स्वास्तिक पर कब विवाद शुरू हुआ?
साल 1933 से लेकर 1945 के बीच जर्मनी में हिटलर की नाजी सेना सत्ता में रही थी। तब हिटलर के सैनिक इस झंडे को हाथों में लेकर लोगों का नरसंहार कर रहे थे। उनकी वर्दियों पर भी ये चिन्ह बना होता था। इस दौरान लाखों यहूदियों को मारा गया। जिसे होलोकॉस्ट के नाम से जाना जाता है। इसके बाद से ये प्रतीक यहूदी विरोधी, नस्लवादी और फासीवादी कहा जाता है। दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद यूरोप और बाकी दुनिया के दबाव में आकर नाजी झंडा और स्वास्तिक जैसे प्रतीक चिन्ह जर्मनी में बैन किए गए। इसके साथ ही फ्रांस, ऑस्ट्रिया और लिथुआनिया में भी इसके इस्तेमाल पर रोक लगी हुई है।
ऑस्ट्रेलिया में स्वास्तिक को क्यों बैन किया गया?
न्यू साउथ वेल्स के ज्यूइश बोर्ड ऑफ डेप्यूटीज के CEO डेरेन बार्क ने इस बारे में बताया कि स्वास्तिक नाजियों का प्रतीक है। ये हिंसा को दिखाता है। इसका इस्तेमाल कट्टरपंथी संगठन किया करते थे। उन्होंने आगे कहा कि हमारे राज्य में काफी समय से इसपर रोक को लेकर चर्चा चल रही है। अब अपराधियों को सही सजा मिलेगी।