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Yasukuni Temple: जापान में मौजूद एक 'मंदिर' को लेकर भिड़े चीन और दक्षिण कोरिया, आखिर क्या है इसके पीछे की वजह

Yasukuni Temple Japan: चीन और दक्षिण कोरिया इस मंदिर में होने वाली आधिकारिक यात्राओं को लेकर अकसर नाराज रहते हैं। इन दोनों देशों का आज भी यही मानना है कि युद्ध के दौरान और उसके बाद जापानी सेना ने कई देशों को परेशान किया था, लेकिन चीन और दक्षिण कोरिया को सबसे ज्यादा परेशान किया गया।

Written By: Shilpa
Published : Aug 16, 2022 16:32 IST, Updated : Aug 16, 2022 16:40 IST
Yasukuni Temple Japan
Image Source : TWITTER Yasukuni Temple Japan

Highlights

  • काफी विवादित है यासुकुनी मंदिर का इतिहास
  • जापानी मंत्रियों के मंदिर दौरे के बाद से बवाल
  • चीन और दक्षिण कोरिया ने जारी किए बयान

Yasukuni Temple: सोमवार को जापान के दो मंत्रियों ने विवादित युद्ध स्मारक मंदिर का दौरा किया, जिसके बाद एक बार फिर पूर्वी एशिया में तनाव बढ़ गया है। उनके ऐसा करने से चीन और दक्षिण कोरिया आगबबूला हो गए हैं। मंत्रियों ने जिस मंदिर का दौरा किया है, उसे दूसरे विश्व युद्ध के सैन्य प्रभुत्व वाले स्थल के रूप में देखा जाता है। इस मंदिर का नाम यासुकुनी श्राइन है, जो राजधानी तोक्यो में स्थित है। इसे युद्ध में जान गंवाने वाले 23 लाख लोगों की याद में बनाया गया है। इनमें से ज्यादातर जापानी लोग थे। वहीं दूसरी तरफ, जिन लोगों को युद्ध अपराधी माना जाता है, उनके नाम भी यहां दर्ज हैं। 

क्या है नाराजगी का कारण?

चीन और दक्षिण कोरिया इस मंदिर में होने वाली आधिकारिक यात्राओं को लेकर अकसर नाराज रहते हैं। इन दोनों देशों का आज भी यही मानना है कि युद्ध के दौरान और उसके बाद जापानी सेना ने कई देशों को परेशान किया था, लेकिन चीन और दक्षिण कोरिया को सबसे ज्यादा परेशान किया गया। इस मामले में चीन के विदेश मंत्रालय की तरफ से एक बयान भी जारी किया गया है।

अपने गुस्से भरे बयान में प्रवक्ता वांग वेनबिन ने इसे 'गंभीर रूप से उकसावे' वाला कदम बताया है। उन्होंने कहा है, 'चीन जापान से अनुरोध करता है कि वह इतिहास से सीख ले, सैन्यीकरण का अंत करे, और अपने एशियाई पड़ोसियों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय का विश्वास खोने से बचे।' इसके अलावा दक्षिण कोरिया की सरकार ने भी स्मारक की इस यात्रा को 'निराशाजनक घटना' बताया है।

दक्षिण कोरिया के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि यह स्मारक जापान की महानता को बताता है, जो पिछले युद्ध से जुड़ा है, साथ ही जिसने युद्ध अपराधियों को जगह दी थी। जापान के आर्थिक सुरक्षा मंत्री सनाइ ताकिची और पुनर्निर्माण मंत्री केन्या अकीबा तोहोकु इलाके में स्थित इस मंदिर में आए थे। वह दूसरे विश्व युद्ध की 77वीं बरसी पर श्रद्धांजलि अर्पित करने यहां आए थे।  हालांकि ताकिची अन्य दिनों में भी मंदिर आते जाते हैं। उन्हें जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे का करीबी माना जाता था। 

मंदिर को लेकर क्यों है इतनी नाराजगी?

जापान ने दूसरे विश्व युद्ध में आत्मसमर्पण कर दिया था। इस हार के आठ दशक बाद यासुकुनी मंदिर अब भी पूर्वी एशिया में युद्ध के उस दर्दनाक समय की याद दिलाता है। ये मंदिर 1869 में बनाया गया था। जो ऊंची इमारतों से भी दिखाई पड़ता है। इसे 1945 तक सरकार से वित्तीय मदद मिलती थी। यासुकुनी दो शब्दों से मिलकर बना है, जिसका जापानी भाषा में मतलब देश और शांति है। इस मंदिर को देश के धर्म शिंटोवाद का केंद्र माना जाता है। शिंटोवाद के तहत, एक आध्यात्मिक राजा के नाम पर देश की आबादी से लड़ने के लिए कई अपीलें हुई थीं।

1978 में विश्व युद्ध के समय के 14 नेताओं को यहां सम्मानित किया गया था। इनमें से दो नेताओं को 1948 में एक अदालत ने 'क्लास ए' के युद्ध अपराधी घोषित किया था। इनमें एक का नाम हिदेकी तोजो था, जो जापान के प्रधानमंत्री थे। ऐसा कहा गया कि तोजो सहित कुछ अन्य लोगों को उसी साल यहां गुप्त तरीके से आयोजित समारोह में भगवान का दर्जा दिया गया था। जब ये खबर सामने आई, तो खूब हंगामा हुआ। जापान के कई लोग आज भी यासुकुनी मंदिर में अपने रिश्तेदारों को श्रद्धांजलि देने के लिए आते हैं। लेकिन चीन और दक्षिण कोरिया का मानना है कि यहां युद्ध अपराधियों को सम्मानित किया गया था। 

कोरिया और चीन का दर्द

जापान ने 1910 से 1945 तक कोरिया पर शासन किया था और यहां तक कि आज भी दक्षिण कोरिया इसके लिए उसे परेशान करता है। उसी समय 1931 से 1945 तक जापान ने चीन के कुछ हिस्सों पर भी कब्जा किया हुआ था। जिसके चलते आज भी इन दोनों देशों के रिश्ते सामान्य नहीं हैं। जापान के आलोचकों का मानना है कि ये मंदिर सेना का प्रतिनिधित्व करता है। 

इसके साथ ही ये भी कहा जाता है कि कैसे नेताओं की यात्रा धर्म और संविधान का उल्लंघन करती है। पश्चिमी शासन से एशिया को आजाद कराने के लिए जापान ने जो युद्ध लड़ा था, उसे लेकर यहां एक संग्रहालय भी है। आलोचकों का कहना है कि जापानी सेना द्वारा किए गए अत्याचारों की अनदेखी की गई है। लेकिन यहां युद्ध में मारे गए हजारों ताइवान और कोरिया के नागरिकों के नाम भी हैं। 

राजा ने भी मंदिर में आने से परहेज किया

जापान के राजा हिरोहिता आठ बार मंदिर आए हैं। वह यहां आखिरी बार 1975 में आए थे। उनका कहना है कि लोगों की नाखुशी के कारण अब वह यहां नहीं आते। उनके बेटे आखिहितो यहां कभी नहीं आए। न ही वर्तमान राजा नारुहितो मंदिर आए हैं। आकिहितो 1989 में राजा बने थे और 2019 तक देश के राजा रहे। 2013 से ही जापान का कोई भी प्रधानमंत्री यहां नहीं आया। 2013 में तत्कालीन प्रधानमंत्री आबे ने मंदिर की यात्रा की थी। जिसके बाद चीन और कोरिया का गुस्सा सातवें आसमान पर चला गया। जापान के करीबी सहयोगी अमेरिका तक ने इसकी निंदा की थी। 

अमेरिका के इस कदम से जापान हैरान हो गया था। बीते साल अक्टूबर महीने में प्रधानमंत्री बने फुमियो किशिदा ने परंपरागत रूप से इस मंदिर के नाम पर पैसे दान किए हैं। हाल के महीनों में किशिदा ने दक्षिण कोरिया के साथ रिश्ते अच्छे करने की बात कही है। उनका कहना है कि दोनों देशों के पास अब बर्बाद करने के लिए और समय नहीं बचा है। इसलिए युद्ध से जुड़े मुद्दों को सुलझाकर संबंधों में सुधार करना होगा। 

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