नई दिल्ली। कभी-कभी तस्वीरों में ऐसी घटनाएं कैद हो जाती हैं जो कभी नहीं भूली जातीं और ऐसी घटनाओं को कोई भूलना भी चाहे तो तस्वीर सामने आकर पुराने घाव हरे कर देती है। ऐसी ही दो बड़ी घटनाओं की 2 तस्वीरें हैं जिन्हें शायद सदियों तक याद रखा जाएगा और दोनों ही तस्वीरों को अमेरिका की हार से जोड़कर देखा जाएगा। पहली तस्वीर सितंबर 2001 में अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमलों की है और दूसरी तस्वीर सोमवार यानि 30 अगस्त देर रात की है जिसमें अफगानिस्तान से अमेरिका का अंतिम सैनिक लौट रहा है। इन दोनों ही तस्वीरों को अमेरिका की हार के साथ जोड़कर देखा जा रहा है।
सितंबर 2001 अमेरिका में आतंकी संगठन अलकायदा ने आतंकी हमले किए थे। 11 सितंबर 2001 को अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की दो इमारतों तथा पेंटागन पर आतंकी संगठन अलकायदा के 19 आतंकवादियों ने यात्री विमानों का अपहरण करके आतंकी हमले किए थे। आतंकवादियों ने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की इमारतों में हवाई जहाज से टक्कर मारी थी जिस वजह से दोनों इमारतें पूरी तरह से ढह गईं थी और उनके अंदर काम कर रहे हजारों लोग मारे गए थे। 9 सितंबर 2001 को हुए इन आतंकी हमलों में 19 आतंकवादियों सहित 2996 लोग मारे गए थे। इस आतंकी घटना ने अमेरिका को घुटनों पर लाकर खड़ा कर दिया था। हमलों की वजह से अमेरिका का करीब 10 अरब डॉलर का इंफ्रास्ट्रक्चर खत्म हो चुका था। अमेरिका उस घटना को शायद कभी नहीं भूल सकता और इसके लिए अमेरिका में आपात हेल्पलाइन नंबर 911 रखा गया है।
11 सितंबर 2001 को अमेरिका पर हुए आतंकी हमलों ने अमेरिका सहित पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया था, क्योंकि इन हमलों में 90 देशों के नागरिक मारे गए थे। भारत पूरी दुनिया को बार-बार कहता था कि आतंकवाद मानवता के सामने सबसे बड़ा खतरा है और 9/11 आतंकी हमलों से पहले आतंकवाद को लेकर भारत की बात को कोई नहीं सुनता था। लेकिन अमेरिका में हुए आतंकी हमलों के बाद पूरी दुनिया ने और खासकर अमेरिका ने आतंकवाद को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया और 9/11 आतंकी हमलों का बदला लेने की ठानी।
9/11 आतंकी हमलों के बाद उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज वॉकर बुश ने 20 सितंबर 2001 को अमेरिकी कांग्रेस को संबोधित करते हुए कहा था कि आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की लड़ाई अलकायदा के खात्मे से शुरू होगी लेकिन खत्म तबतक नहीं होगी जबतक दुनिया के हर आतंकी संगठन का खात्मा नहीं हो जाता। बुश ने अमेरिकी कांग्रेस को दिए अपने भाषण में कहा था कि आतंकी संगठन अलकायदा का अफगानिस्तान की उस समय की तालिबान सरकार में निर्णायक प्रभाव है, बुश ने उस समय की तालिबान सरकार को धमकाते हुए कहा था कि वह अलकायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन और अन्य आतंकवादियों को अमेरिका के हवाले कर दे या अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहे।
9/11 आतंकी हमलों के बदले और अलकायदा के खात्मे के लिए अमेरिका ने पहले अफगानिस्तान में नॉर्दन एलांयंस के साथ पंजशीर घाटी में हाथ मिलाया और उसके बाद 7 अक्तूबर 2001 को पहली बार हवाई हमले किए गए। शुरुआत में हमले काबुल तथा कंधार ( जहां अलकायदा मुखिया मुल्ला उमर का घर था) में किए गए थे। नवंबर 2001 के अंत तक अमेरिकी फौजों ने नॉर्दन एलांयंस के साथ मिलकर अफगानिस्तान के सभी प्रमुख शहरों यानि काबुल, मजारे शरीफ और कंधार पर कब्जा कर लिया था और तालिबान को भागने पर मजबूर कर दिया था। दिसंबर की शुरुआत में हामिद करजई को अफगानिस्तान का कार्यकारी राष्ट्रपति बनाए जाने की घोषणा भी हो गई।
अमेरिकी हमलों में कई तालिबानी मारे गए और कुछ को चुपके से पाकिस्तान ने अपने यहां शरण दी, आतंकी संगठन अलकायदा का सरगना ओसामा बिन लादेन भी जाकर पाकिस्तान में ही छिप गया था और पाकिस्तान ने उसे ऐसी जगह पर छिपाकर रखा हुआ था जहां पर लगभग अगले 10 साल तक बाहर के देशों की खुफिया एजेसियों को उसकी खबर नहीं लग पायी थी। एक तरफ अमेरिका के सामने पाकिस्तान उसका साथ देने का दिखावा करता रहा और दूसरी तरफ वह अलकायदा के आतंकवादियों और तालिबान को पिछले दरवाजे से अपने यहां सुरक्षा देता रहा। लेकिन अमेरिकी खुफिया एजेंसियां ओसामा बिन लादेन के पीछे हाथ धोकर पड़ चुकीं थी और उन्हें 2011 में जाकर पता चला कि ओसामा पाकिस्तान में छिपा हुआ है और एक मई 2011 को अमेरिकी सैनिकों ने पाकिस्तान में घुसकर ओसामा बिन लादेन को मौत के घाट उतार दिया।
इस बीच अफगानिस्तान में अमेरिकी की देखरेख में नई सरकार चलने लगी जिसमें न तो तालिबान शामिल था और न ही अलकायदा का प्रभाव था और ऐसा लगने लगा था कि अफगानिस्तान बदल रहा है। भारत ने भी 2001 से लेकर 2020 तक अफगानिस्तान में अच्छा खासा निवेश किया और वहां पर कई प्रोजेक्ट लगाए, अफगानिस्तान की संसद बनवाई, वहां की जनता के लिए फ्री में कई सुविधाएं मुहैया कराई और अफगानिस्तान की क्रिकेट टीम को अपने यहां शरण दी और अपने रिसोर्स लगाकर उसे तैयार किया। लेकिन इस दौरान अमेरिकी तथा नाटो फौजों और अफगानिस्तान के आतंकी संगठनों के बीच भी लड़ाई चलती रही। 2001 से लेकर अबतक अफगानिस्तान में लगभग 3600 से ज्यादा नाटो सैनिकों की मौत हुई है जिनमें करीब 2500 अमेरिकी सैनिक हैं। इस दौरान 10 हजार से ज्यादा अमेरिकी सैनिक घायल भी हुए हैं।
अफगानिस्तान की जमीन पर अपने सैनिकों की मौत से अमेरिका में रोष बढ़ने लगा और अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों में अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी और अफगानिस्तान को अपने हाल पर छोड़ देने का मुद्दा जोर पकड़ने लगा। 2020 में हुए अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी का मुद्दा सबसे प्रमुख था और दोनों ही दल यानि डेमोक्रेट तथा रिपब्लिकन अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी का जनता से वादा कर रहे थे। अमेरिका में पहले ट्रंप प्रशासन ने तालिबान के साथ वार्ता शुरू की थी और फिर बाइडेन प्रशासन ने उस वार्ता को आगे बढ़ाया और तय हुआ कि 31 अगस्त तक अमेरिका पूरी तरह से अफगानिस्तान से अपने सैनिक वापस बुला लेगा।
अमेरिका ने जैसे-जैसे अपने सैनिक वापस बुलाना शुरू किए वैसे वैसे तालिबान ने अफगानिस्तान के इलाकों पर अपना कब्जा बढ़ाना शुरू कर दिया, जुलाई से ही तालिबान ने अफगानिस्तान के अलग-अलग क्षेत्रों पर अपना कब्जा शुरू कर दिया था, पहले कंधार, फिर मजारे शरीफ और फिर काबुल पर तालिबान का कब्जा हो गया। 15 अगस्त तक अफगानिस्तान के अधिकतर क्षेत्रों में तालिबान का कब्जा हो चुका था और अमेरिका के नियंत्रण में सिर्फ काबुल एयरपोर्ट बचा था। लेकिन 30 अगस्त की रात को अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपने सभी सैनिकों की वापसी की पूरी होने की घोषणा कर दी... इस घोषणा के साथ ही सामने आई एक तस्वीर, जो हमेशा अमेरिका के जेहन में हमेशा हार रूपी कांटे के रूप में चुभेगी।
अब अफगानिस्तान पर फिर से तालिबान का कब्जा हो चुका है। जिस एयरपोर्ट पर कल थे अमेरिकी थी, उसपर तालिबान का कंट्रोल है और एयरपोर्ट पर अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान को दिए गए तमाम विमानों, हेलीकॉप्टरों और हथियारों पर भी तालिबान का कब्जे की तस्वीरें आ रही हैं। ये तस्वीरें भी हमेशा अमेरिकी शासन से ये सवाल करेंगी कि वो अफगानिस्तान में क्या करने गए थे और उन्हें क्या हासिल हुआ।