इस्लामाबाद: क्या इस्लामी गणराज्य पाकिस्तान एक धर्मनिरपेक्ष देश हो सकता है? पाकिस्तान के चीफ जस्टिस नसीर उल मुल्क ने यह सवाल उठाया है।
उन्होंने 18वें संशोधन के तहत ऊपरी अदालतों के न्यायाधीशों की नियुक्ति और आतंकवादियों पर मुकदमे के लिए 21वें संशोधन के तहत सैन्य अदालतों के गठन को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान यह बात कही। 17 न्यायाधीशों की एक पूर्ण पीठ मामले की सुनवाई कर रही है।
डॉन अखबार की खबर के मुताबिक, मुल्क ने हैरानी जताई कि क्या इस्लाम को देश का धर्म बताने वाले अनुच्छेद-2 में उसकी जगह धर्मनिरपेक्ष रखा जा सकता है और पूछा कि क्या यह मौजूदा संसद कर सकती है या इसके लिए संविधान सभा की जरूरत होगी।
न्यायमूर्ति एम साकिब निसार ने पूछा कि अपने घोषणापत्र में स्पष्ट रूप में धर्मनिरपेक्षता का समर्थन करने वाली कोई राजनीतिक पार्टी को यदि लोग पूरा बहुमत देते हैं, तो फिर क्या वह संविधान में बदलाव करने की हकदार है।
इस पर वरिष्ठ वकील हामिद खान ने कहा, 'बगैर जनमत संग्रह के नहीं।' वह कम से कम तीन जिला बार एसोसिएशन का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जिन्होंने संशोधन को चुनौती दी थी।
उन्होंने कहा कि मूल ढांचे के तौर पर इस्लाम को मान्यता देने वाले संविधान की मूल विशेषता में बदलाव नहीं हो सकता।
धर्मनिरपेक्षता पर बहस उस वक्त शुरू हुई, जब न्यायमूर्ति आसिफ सईद खोसा ने अपने विचार साझा करते हुए कहा कि पाकिस्तान का गठन 1947 में इस्लाम के नाम पर हुआ और यह ऐलान किया गया कि इस्लाम इसका राष्ट्रीय धर्म होगा। बांग्लादेश ने इससे अलग होने पर एक नया संविधान बनाया और इसकी मूल विशेषता बदलकर धर्मनिरपेक्ष कर दी। उन्होंने दलील दी कि संविधान सभा संविधान में बदलाव कर सकती है।
जस्टिस निसार ने इस बात पर प्रकाश डालने को कहा कि संविधान सभा का गठन कैसे होगा। अदालत ने याचिकाकर्ताओं से यह भी पूछा कि अदालत विधायिक के क्षेत्राधिकार में हस्तक्षेप कैसे कर सकती है जो कानून बनाने और यहां तक कि संविधान में संशोधन करने के लिए सशक्त है।