नई दिल्ली: पूरी दुनिया में इस वक़्त जिस पाकिस्तानी का नाम चर्चा में है वो है जनरल क़मर जावेद बाजवा जिनके सीने पर बगैर कोई जंग लड़े कई मेडल चमचमाते रहते हैं। यहां सवाल उठता है कि क़रीब 40 साल की सर्विस में बाजवा ने ऐसा क्या कमाल कर दिया, जो पाकिस्तान की हुकू़मत ने उन्हें मेडलों से लाद दिया? दरअसल इन तमग़ों के पीछे वो क़िस्से हैं जिनकी असली कहानी सिर्फ़ और सिर्फ़ बाजवा और पाकिस्तानी सेना को मालूम है।
सबसे पहले हम बात करते हैं 10 साल की सर्विस के लिये मिलने वाला मेडल। ये फ़ीता बाजवा को तब मिला जब वो सेना में कैप्टन थे। ऐसे ही चार और मेडल वो अपने सीने पर सजाते हैं क्योंकि फ़ौज में उनको 40 साल हो चुके हैं लेकिन बाजवा को मिले जो मेडल सबसे ज़्यादा चौंकाते हैं वो है क़रारदाद-ए- पाकिस्तान। ये वो मेडल है जिसका बाजवा की सर्विस से कोई ताल्लुक़ नहीं है। बहादुरी तो बहुत दूर की बात है।
1940 में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की लाहौर बैठक में अलग पाकिस्तान मुल्क के लिये प्रस्ताव पास हुआ था। 1990 में इस प्रस्ताव के 50 साल पूरे हुए और तब ये मेडल पाकिस्तानी फ़ौज के कई अफ़सरों को दिया गया। इसी चक्कर में बाजवा भी मुफ्त के मेडल से नवाज़ दिए गए।
दूसरा हैरान करने वाला मेडल है तमग़ा-ए-जम्हूरियत। जम्हूरियत के मतलब होता है लोकतंत्र और लोकतंत्र का पाकिस्तान में क्या काम। 1988 में पाकिस्तान के तानाशाह जनरल ज़िया उल हक़ की मौत हुई थी जिसके बाद पाकिस्तान में कथित जम्हूरियत दोबारा लौटी। इसी की याद में इस मेडल की शुरुआत हुई।
हैरत की बात ये है कि परवेज़ मुशर्रफ़ को भी ये मेडल दिया गया था जबकि 1999 में उन्होंने सेनाध्यक्ष रहते हुए नवाज़ शरीफ़ का तख़्ता पलट दिया था। मुशर्रफ़ के बाद पाकिस्तानी सेना की कमान संभालने वाले जनरल अशफ़ाक़ परवेज़ कयानी को भी ये मेडल दिया गया।
तीसरा मेडल है तमग़ा-ए-बक़ा। ये मेडल पाकिस्तानी सेना अधिकारियों को 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद दिया गया था। इसमें बाजवा का दख़ल बस इतना था कि वो सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल के पद पर थे और कई अफ़सरों के साथ उन्हें भी ये मेडल थमा दिया गया। इससे पहले उन्हें बतौर मुल्क पाकिस्तान के 50 साल पूरे होने पर भी एक मेडल मिल चुका था नाम है स्वतंत्रता दिवस स्वर्ण जयंती पदक।
सिर्फ़ 20 साल की सर्विस में उनका सीना ऐसे दर्जनों मेडल से चौड़ा हो गया, जिनके लिये उन्होंने कुछ किया ही नहीं। सबकुछ ऑटोमैटिक तरीक़े से चल रहा था। इस बीच 1999 में कारगिल की जंग भी हुई, लेकिन बाजवा के सीने पर कोई नई एंट्री नहीं हुई। तब वो रावलपिंडी में 10वीं कोर के मुख्यालय में स्टाफ ऑफिसर थे।
चौथा मेडल है तमग़ा-ए-इस्तक़लाल। ये मेडल पाकिस्तानी फ़ौज के हज़ारों अफ़सरों को 2002 के बाद दिया गया, जब भारत की फ़ौज अपनी हदों के भीतर ऑपरेशन पराक्रम के लिए पाकिस्तान बॉर्डर पर थी। ये मेडल सिर्फ जंग की तैयारी के लिये था तब बाजवा सेना में कर्नल थे। यानी बिना युद्ध लड़े बाजवा समेत कई अफ़सरों को ये मेडल पहना दिया गया। इसके अलावा दो और ऐसे मेडल हैं जो पाकिस्तान के ज़्यादातर जनरल अपने सीने पर चढ़ा चुके हैं। निशान-ए-इम्तियाज़ और हिलाल-ए-इम्तियाज़। ये दोनों मेडल पाकिस्तान में आम नागरिकों के अलावा फ़ौज में शानदार सर्विस के लिये दिये जाते हैं।
इसके अलावा बाजवा की वर्दी पर तुर्की और जॉर्डन की सरकारों से मिले मेडल भी चमकते हैं। सोचने वाली बात ये है कि जनरल क़मर जावेद बाजवा ने अपनी सर्विस के दौरान ऐसा कौन सा कमाल दिखाया जिसकी वजह से उन्हें इन तमग़ों से नवाज़ा गया है? सच्चाई यह है कि पाकिस्तान की सेना में मेडल पहनना एक ज़बरदस्ती वाली रस्म है। ये फ़ौज की बहादुरी से ज़्यादा वर्दी की ख़ूबसूरती से ताल्लुक़ रखती है।