काबुल: अफगानिस्तान के प्रथम उपराष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह ने तालिबान के सामने घुटने टेकने से साफ इनकार कर दिया है और खुद को देश का केयरटेकर राष्ट्रपति घोषित कर दिया है। उन्होंने कहा है कि इस मुद्दे पर अमेरिकी राष्ट्रपति से बहस करना बेकार है और अफगानों को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी। उन्होंने कहा कि अमेरिका और नाटो ने भले ही अपना हौसला खो दिया हो लेकिन हमारी उम्मीद अभी बाकी है। सालेह ने कहा कि जो बेकार का प्रतिरोध हो रहा था वह खत्म हो गया है और उन्होंने साथी अफगानों से तालिबान के खिलाफ जंग में शामिल होने का आवाह्न किया।
'मैं तालिबान के साथ कभी भी एक छत के नीचे नहीं रहूंगा'
सालेह ने मंगलवार को एक ट्वीट में लिखा, ‘सफाई: अफगानिस्तान के संविधान के अनुसार, राष्ट्रपति की अनुपस्थिति, पलायन, इस्तीफे या मृत्यु की हालत में फर्स्ट वाइस प्रेसिडेंट कार्यवाहक राष्ट्रपति बन जाता है। मैं इस समय अपने देश में हूं और वैध केयरटेकर प्रेसिडेंट हूं। मैं सभी नेताओं से उनके समर्थन और आम सहमति के लिए संपर्क कर रहा हूं। अब अफगानिस्तान पर अमेरिकी राष्ट्रपति से बहस करना बेकार है। उन्हें यह सब पचा लेने दें। हम अफगानों को यह साबित करना होगा कि अफगानिस्तान वियतनाम नहीं है और तालिब भी कहीं से वियतकांग के आसपास भी नहीं हैं। यूएस/नाटो के विपरीत हमने हौसला नहीं खोया है और हम अपने सामने अपार संभावनाएं देख रहे हैं। बेकार का विरोध खत्म हो गया है। प्रतिरोध में शामिल हों।’
'मैं तालिबान के साथ कभी भी एक छत के नीचे नहीं रहूंगा'
एक तरफ जहां राष्ट्रपति अब्दुल गनी देश छोड़कर निकल गए तो दूसरी तरफ सालेह पंजशीर घाटी चले गए थे। सालेह ने पहले भी तालिबान के खिलाफ बयान दिया था। रविवार को जब यह साफ हो गया था कि काबुल समेत लगभग पूरा अफगानिस्तान तालिबान के कब्जे में आ जाएगा, तब भी उन्होंने ट्वीट किया था, ‘मैं कभी भी और किसी भी परिस्थिति में तालिबान के आतंकवादियों के सामने नहीं झुकूंगा। मैं अपने नायक अहमद शाह मसूद, कमांडर, लीजेंड और गाइड की आत्मा और विरासत के साथ कभी विश्वासघात नहीं करूंगा। मैं उन लाखों लोगों को निराश नहीं करूंगा जिन्होंने मेरी बात सुनी। मैं तालिबान के साथ कभी भी एक छत के नीचे नहीं रहूंगा। कभी नहीं।’
पंजशीर घाटी पर कभी नहीं हो पाया है तालिबान का कब्जा
बता दें कि सालेह नॉर्दन अलायंस के पूर्व कमांडर अहमद शाह मसूद के गढ़ पंजशीर घाटी से आते हैं। अफगानिस्तान की राजधानी काबुल के पास स्थित इस घाटी पर 1980 से लेकर 2021 तक कभी भी तालिबान का कब्जा नहीं हो पाया है। वहीं, पहले सोवियत संघ और हाल के दिनों तक अमेरिका की सेना ने भी इस इलाके में केवल हवाई हमले ही किए हैं। यहां की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए उनकी भी कभी जमीनी कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं हुई।