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मोदी की इस्राइल यात्रा: जाने क्यों इस्राइल मुस्लिम देशों की आंखों की किरकिरी है

खाड़ी के मुस्लिम देशों को इस्राइल फूटी आंख नहीं सुहाता है और इसका इतिहास बहुत पुराना है। इसराइल दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां की बहुसंख्यक आबादी यहूदी है।

India TV News Desk
Published on: July 05, 2017 13:33 IST
 history of conflicts - India TV Hindi
history of conflicts

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन दिनों इस्राइल की यात्रा पर हैं जहां उनका भव्य स्वागत हो रहा है। मोदी इस्राइल की यात्रा करने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं। भारत के खाड़ी देशों से अच्छे संबंध रहे हैं और इसीलिये मोदी की इस यात्रा को अहम बदलाव के रुप में देखा जा रहा है।

खाड़ी के मुस्लिम देशों को इस्राइल फूटी आंख नहीं सुहाता है और इसका इतिहास बहुत पुराना है। इसराइल दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां की बहुसंख्यक आबादी यहूदी है। यूं तो इस्राइल एक छोटा देश है पर उसकी सैन्य ताक़त का कोई जवाब नहीं है। 

दुनिया में 14 मई 1948 को पहला यहूदी देश अस्तित्व में आया था जिसे आज हम इस्राइल के नाम से जानते हैं। अस्तित्व में आने के कुछ महीने बाद ही यानी 1948 के आख़िर में इस्राइल के अरब पड़ोसियों ने उस पर हमला बोल दिया। उनकी कोशिश इस्राइल का विनाश करने की थी लेकिन वे नाकाम रहे। 1967 में एक बार फिर युद्ध छिड़ा जिसे अरब-इस्राइल युद्ध के नाम से जाना जाता है। 5 जून से 11 जून तक चले युद्ध के दौरान मध्य पूर्व संघर्ष का स्वरूप बदल गया। इसराइल ने मिस्र को ग़ज़ा से, सीरिया को गोलन पहाड़ियों से और जॉर्डन को पश्चिमी तट और पूर्वी यरुशलम से धकेल दिया। इसके कारण पाँच लाख और फ़लस्तीनी बेघरबार हो गए।

दरअसल 1948 में इस्राइल के गठन के बाद से ही अरब देश इस्राइल को जवाब देना चाहते थे। दोनों ने एक दूसरे पर हमले करने शुरु कर दिए थे। लेकिन यहूदियों के हमलों से फ़लस्तीनियों के पाँव उखड़ गए और हज़ारों लोग जान बचाकर लेबनान और मिस्र भाग चले गए।

अरब देशों ने इस्राइल से मुक़ाबला करने के लिए जनवरी 1964 में फ़लस्तीनी लिबरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन (पीएलओ) नाम का संगठन बनाया जिसकी बागडोर 1969 में यासिर अराफ़ात ने संभाली। अराफ़ात ने इसके पहले 'फ़तह' नाम का संगठन बनाया था जो इस्राइल के ख़िलाफ़ के लिए सुर्ख़ियों में रहता था।

मिस्र और सीरिया को जब कूटनीतिक तरीकों से अपनी ज़मीनें वापस नहीं मिली तो उन्होंने 1973 में इस्राइल के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ दिया जिसे रोकने में  अमरीका, सोवियत संघ और संयुक्त राष्ट्र संघ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस युद्ध के बाद इस्राइल अमरीका के और क़रीब आ गया और उधर सऊदी अरब ने इस्राइल को समर्थन देने वाले देशों को पेट्रोलियम पदार्थों की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया जो मार्च 1974 तक जारी रहा।

मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादात इस्राइल को मान्यता देने वाले पहले अरब नेता थे जो 19 नवंबर 1977 को यरुशलम गए थे और उन्होंने इस्राइली संसद में भाषण दिया था। इस क़दम से अरब देश मिस्र से नाराज़ हो गए और मिस्र का बहिष्कार किया हालंकि अलग से इस्राइल से संधि भी की। सादात को इस्राइल के सात समझौता करना मंहगा पड़ा और 1981 में इस्लामी चरमपंथियों ने उनकी हत्या कर दी।

1987 में फ़लस्तीनियों ने इस्राइल के कब्ज़े के विरोध में जन-आंदोलन छेड़ा जो ज़ल्दी ही पूरे क्षेत्र में फैल गया। इसमें नागरिक अवज्ञा, हड़ताल और बहिष्कार आदि के ज़रिये विरोद प्रकट किया जा था। कई बार बीच बीच में इस्राइली सैनिकों पर पत्थरबाज़ी भी होती थी और इस्राइली सुरक्षा बलों की जवाबी कार्रवाई में फ़लस्तीनी मारे जाते थे।

खाड़ी युद्ध के बाद मध्य पूर्व में शांति के लिए 1991 में मैड्रिड में शिखर सम्मेलन का आयोजन हुआ जिसकी पहल अमेरिका ने की थी। 1993 में नोर्व के शहर ओस्लो में भी शांति के लिए वार्ता आयोजित की गई थी जिसमें इस्राइल के तत्कालीन प्रधानमंत्री यित्ज़ाक रॉबिन और फ़लस्तीनी नेता यासिर अराफ़ात ने हिस्सा लिया था। तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पहल पर व्हाइट हाउस में शांति के घोषणा पत्रों पर हस्ताक्षर हुए और पहली बार इस्राइली प्रधानमंत्री राबिन और फ़लस्तीनी नेता अराफ़ात ने हाथ मिलाया।

4 मई 1994 को इसराइल और पीएलओ के बीच काहिरा में सहमति हुई जिसके तहत तय हुआ था कि इस्राइल कब्ज़े वाले क्षेत्रों को खाली कर देगा। इसके साथ ही फ़लस्तीनी प्राधिकारण का उदय हुआ लेकिन ग़ज़ा पर फ़लस्तीनी प्राधिकरण के शासन में अनेक मुश्किलें पेश आईं। इन समस्याओं के बावजूद मिस्र के शहर ताबा में ओस्लो द्वितीय समझौता हुआ। इस पर फिर हस्ताक्षर हुए लेकिन इन समझौतों से भी शांति स्थापित नहीं हो पाई और हत्याओं और आत्मघाती हमलों का दौर जारी है।

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