रियो ओलंपिक 2016 की शुरुआत से ही हर किसी की उम्मीदें भारत की एकमात्र जिमनास्ट दीपा कर्मकार पर टिकी हुईं थीं। दीपा ने बेशक अच्छा प्रदर्शन किया लेकिन वो पदक नहीं जीत पाई और उसे चौथे नंबर के साथ संतोष करना पड़ा। दीपा की हार पर कल करोड़ों लोगों की आंखों से आंसू बहे। कुछ लोग तो इतने उदास और भावुक हो गए कि उन्होंने अपनी संवेदनाएं सोशल साइट्स पर जता दीं। मगर दोस्तों खेल में संवेदनाओं से पदक नहीं आते। दोष दीपा के खेल में नहीं था, दिक्कत उस खेल के मठाधीशों से है जिसे दीपा खेलती है...दिक्कत उस खेल कल्चर से है जहां क्रिकेट ही सब कुछ होता है।
यकीन मानिए अपने ही देश में अगर आप पढ़े लिखे तबके से हॉकी के चार खिलाड़ियों के नाम पूछेंगे तो वो बगलें झाकने लगेंगे। जिस देश के लोग जिमनास्ट का G भी नहीं जानते उस देश की एक खिलाड़ी पदक की रेस में चौथे नंबर पर रहती है। फख्र है ऐसी खिलाड़ी पर और लानत है उस खेल के संचालकों से जो ओलंपिक जैसे बड़े खेलों के आयोजन से चंद दिनों पहले ही नींद से जागते हैं और उम्मीद पाल लेते हैं कि 30 से 50 दिनों की ट्रेनिंग में उनका खिलाड़ी देश के लिए पदक जा देगा। अरे कुछ तो शर्म करो यार।
133 करोड़ (1,338,561,902) आबादी वाला एक देश भारत हर चौथे साल ओलंपिक जैसे खेल महाकुंभ में एक-एक पदक को तरसता है। हमारा देश में ब्रॉन्ज मैडल ही जीत लें ऐसी कामनाएं होने लगती हैं लोग पूजा-पाठ पर बैठ जाते हैं। वहीं अमेरिका और चीन जैसे देश अपने खिलाड़ियों को लेकर इतना निश्चिंत होते हैं कि वो तीन पदकों में से कोई एक तो आसानी से हथिया ही लेंगे, क्योंकि उनका हर खिलाड़ी गोल्ड पाने के लिए जी-जान लगा देता है...वह उसे पा भी लेता है। दूसरी तरफ भारत में हमारे खिलाड़ी ब्रॉन्ज के लिए कोशिश करते हैं, तो देशवासी अपने खिलाड़ी को यह पदक जिताने के लिए पूजा-अर्चना......नतीजा हम ब्रॉन्ज भी नहीं पा पाते। इसके लिए जिम्मेदार न हमारे खिलाड़ी हैं और न पदक की दुआ मांगने वाले जनता, जिम्मेदार वो लोग हैं जो इन खेलों को चलाते हैं, खिलाड़ियों को तैयार करते हैं और यह तय करते हैं कि कौन सा खिलाड़ी इस बार ओलंपिक जाएगा। हमारी हार तो इसी खेमे में हो जाती है...ओलंपिक जाकर तो हम खेल में हारने की औपचारिकता भर करते हैं।
चीन के बाद दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाला दूसरा देश है भारत लेकिन हर बार ओलंपिक की पदक तालिका में वो खुद को तलाशते-2 थक जाता है। अगर मेजर ध्यानचंद के दौर और तीन ओलंपिक (2004 Athens, 2008 Beijing, 2012 London) को छोड़ दिया जाए तो शायद ही हमने कभी अपनी क्षमता के हिसाब से स्तरीय प्रदर्शन किया हो।
आखिर हम क्यों नहीं झटक पाते ओलंपिक पदक:
करोड़ों की आबादी वाले भारत में अमीरी-गरीबी, जात-पात, धर्म एवं संप्रदाय के साथ साथ बोली-पानी की विविधता है। देश में सबसे ज्यादा तादाज में युवा रहते हैं जिन्हें सबसे ज्यादा ऊर्जावान माना जाता है, लेकिन वही युवा देश में सबसे ज्यादा बदहाल है। वो युवा जो देश के लिए सैकड़ों पदक ढटक सकता है वो खेल कल्चर की शून्यता के चलते बेरोजगारी की मार झेल रहा है। खेल के नाम पर हम सिर्फ क्रिकेट जानते हैं। आर्करी, टेबल टेनिस, रोइंग, शूटिंग, बॉक्सिंग, एथलेटिक्स, जूडो और जिमनास्ट ये ओलंपिक के वो खेल हैं जिनमें हमारे 118 खिलाड़ी हिस्सा लेने गए हैं। लेकिन अगर सच्चाई बताई जाए तो हमारे खिलाड़ी एक भी पदक लाते नहीं दिख रहे हैं। चीन में चार साल का बच्चा देश के लिए पदक लाने को तैयार किया जाने लगता है और हमारे देश में जवान होने के बाद खिलाड़ी खेल खेलना शुरु करता है और फिर राजनीति का शिकार होकर मजबूरन कुछ ऐसा काम करने लगता है जिसके लिए वो बना ही नहीं। यह है हमारे देश की मजबूरी।
हमारे परिवार भी हैं सबसे बड़े जिम्मेदार:
बचपन में सिर्फ सुना था, कि पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे तो होगे खराब। हमारे देश का लगभग हर परिवार यह चाहता है कि उस बेटा सिर्फ पढ़ें फिर भले ही किताबों का रत्ती भर भी उसके भेजे में न समा रहा हो। हर कोई अपने बेटे को डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस, पीसीएस और वकील बनाने के बारे में सपना पालता है। कोई नहीं कहता कि बेटे जाओ तुम ये खेल खेलो और लगन लगाकर इसे शिद्दत से खेलना। हमारे देश में स्थानीय खेलों को इसी सोच के कारण जमीदोज कर दिया जाता है जबकि चीन और अमेरिका जैसे खेलों में खिलाड़ी इसकी हर साल हर दिन प्रैक्टिस करते हैं। ऐसे में जब कोई मां-बाप अपने बच्चे को सिर्फ पढ़ाई में ही खंपाए रहेगा तो फिर ओलंपिक में पदक कैसे आएगा जी।
निकलते हैं खिलाड़ी लेकिन राजनीतिक खेल उनके खेल का दम निकाल देता है:
कहते है कि अगर आप भारत के हर राज्य का दौरा करें तो ऐसे तमाम होनहार मिल जाएंगे जिन्हें अगर अच्छे से तैयार किया जाए तो वो बिना लाग-लपेट देश के लिए पदक झटक सकता है, लेकिन खिलाड़ी की तलाश के बाद उसकी खातिर सिर्फ खेल के आयोजन, शुरुआत और समापन तक ही रहती है। उसके बाद सब उसे अपने जहन से ऐसे निकाल फेंकते हैं जैसे कोई घर में पड़ी पुरानी रद्दी को कबाड़ी वाले को थमा देता है। तो ऐसे तो पदक नहीं आते जी।