दुनिया में हूँ, दुनिया का तलबदार नहीं हूँ ये पंक्ति शायद अकबर इलाहाबादी मानो धोनी के जीवन पर लिखकर गए हो। इस तरह का अंदाज ही महेंद्र सिंह धोनी के शानदार क्रिकेट करियर में उनकी सादगी के साथ चार चाँद लगाता है। भारत को क्रिकेट के मैदान में हर एक खिताब जिताने के बाद वो छोड़ देते हैं भीड़, उन्माद और कोलाहल को लेकिन सभी फैन्स की निगाहें उन्हें ही ढूँढती हैं। क्रिकेट के खेल में चपलता और मास्टरमाईंड से धोनी ने पूरी दुनिया को अपने कदमों के आगे झुका दिया मगर इस बात का गुरूर धोनी ने कभी सामने आने नहीं दिया। यही कारण है साल 2004 से क्रिकेट की दुनिया में शून्य से शुरू करने वाले धोनी ने तमाम उपलब्धियों को हासिल कर 74वें स्वतंत्रता दिवस पर क्रिकेट को अलविदा कहकर करोड़ों खेल प्रेमियों को भाव विभोर कर दिया।
जहां एक तरफ सभी ( 15 अगस्त ) आजादी का जश्न मना रहे थे उसी शाम धोनी ने, मैं पल दो पल का शायर हूँ और पल दो पल मेरी कहानी हैं...इन पंक्तियों के साथ अचानक से क्रिकेट को अलविदा कहकर जता दिया कि उन्हें अपने संन्यास के लिए किसी बड़े भव्य समारोह की जरूरत नहीं है। जिस तरह शांति पूर्ण ढंग से धोनी ने अपनी क्रिकेट की दुनिया का आगाज किया ठीक उसी अंदाज में अंजाम भी दिया।
साल 2004 में जब धोनी ने क्रिकेट के मैदान में कदम रखा उस समय भारतीय क्रिकेट के युवा खिलाड़ी पूर्व कप्तान सौरव गांगुली की कप्तानी में निडर होकर खेलना तो सीख गए थे लेकिन बड़े टूर्नामेंट और खिताबों को कैसे अपने नाम करना है। इस पर धोनी ने अपनी मुहर लगाई।
शून्य के बावजूद मिला मौका
बांग्लादेश के खिलाफ पहले मैच में धोनी मैदान में उतरें और जीरो (शून्य) पर रन आउट होकर पवेलियन की तरफ बढ़ते हुए उनके चेहरे पर तो मुस्कान थी लेकिन मन में कुछ कर गुजरने का गुबार जरूर फूट रहा होगा। उस मैच को मैं रेडियों पर सुन रहा था क्योंकि उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में उन दिनों लाइट काफी जाती थी। लेकिन क्रिकेटिया परिवार से होने के नाते हम सभी करीब 8 से 10 लोग इस लम्बे वाल लड़के के खेल को नहीं देख तो सुनना जरूर चाहते थे। इससे पहले हमारे बीच काफी चर्चा थी कि टीम इंडिया में एक लम्बे बाल वाला लड़का आया है जो बहुत लम्बे - लम्बे छक्के मारता है। इतना ही नहीं वो छक्का मारकर मैच भी जिताता है। लेकिन उनके पहले मैच में ही रन आउट होकर पवेलियन जाने से सभी काफी निराश थे और मन में चिंता थी कि अगले मैच में उन्हें हम टेलीविजन पर देख पायेंगे भी या नहीं।
हलांकि उस समय टीम इंडिया के कप्तान रहे सौरव गांगुली को इस लम्बे बॉल वाले विकेटकीपर बल्लेबाज पर काफी भरोसा था। जिसके बाद धोनी को लगातार मौका मिला और फिर उन्होने पाकिस्तान व श्रीलंका के खिलाफ क्रमशः 148 व 183 रनों की तूफानी पारी खेल साबित कर दिया कि रांची के मैदानों में छक्के बरसाने वाला माहि अब टीम इंडिया का उभरता सितारा धोनी बन चुका है।
2007 में बने भारतीय क्रिकेट का चिराग
2004 के बाद धोनी टीम इंडिया में प्रमुख विकेटकीपर बल्लेबाज के रूप में बने रहे। उसके बाद बारी थी आईसीसी विश्वकप 2007 की। तब तक धोनी अच्छी तरह से सभी खेल प्रेमियों के मन में अपना घर बना चुके थे। अब इस विश्वकप में सचिन, गांगुली, सहवाग, द्रविड़, युवराज और धोनी जैसे सितारों के होने से फैन्स को जीत की काफी उम्मीद थी। मगर इसके विपरीत टीम इंडिया को बांग्लादेश जैसी छोटी टीम से करारी हार हेलनी पड़ी और ग्रुप मैचों से ही टूर्नामेंट से बाहर होना पड़ा। ये बात फैन्स को बिल्कुल भी रास नहीं आई और पूरे भारत में सभी खिलाड़ियों के घर के बाहर फैन्स ने पत्थरबाजी और टीम इंडिया की नाकामी में विरोध जताया। कई खिलाड़ियों के पुतले भी फूंके गए।
इस तरह भारतीय क्रिकेट में बढ़ते अँधेरे के बीच आईसीसी ने एक और नया टूर्नामेंट टी20 विश्वकप उसी साल साउथ अफ्रीका में कराने का ऐलान कर डाला। ये समय टीम इंडिया के लिए और चैलेंजिंग तब हुआ जब सचिन, सौरव, और द्रविड़ जैसे सीनियर खिलाड़ियों ने इसमें खेलने से इंकार कर दिया।
ऐसे में ग़ालिब की ये पंक्ति उस समय भारतीय क्रिकेट की दशा पर फिट बैठती है कि कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई राह नजर नहीं आती। जिसका मतलब था कि जब सामने अँधेरा हो तो कोई राह नजर नहीं आती है कि किस दिशा में जाए। तभी टीम मैनेजमेंट ने सहवाग और युवराज जैसे सीनियर खिलाड़ियों को दरकिनार कर धोनी के कन्धों पर कप्तानी का भार डाला। धोनी ने मिलने वाली जिम्मेदारी को बिना कुछ कहे स्वीकारा और टीम के खिलाड़ियों के साथ तैयारी करना शुरू कर दिया। हलांकि वो भारतीय क्रिकेट के अँधेरे में चिराग बने और इस विश्वकप के फ़ाइनल मैच में उन्होंने पाकिस्तान को हराकर भारतीय फैन्स को दोहरी ख़ुशी दे डाली। पहली ये कि हम विश्वकप जीते और भारतीयों की दूसरी सबसे बड़ी ख़ुशी ये थी कि हम पाकिस्तान को हराकर जीतें।
टी20 विश्वकप जीत का जश्न
साउथ अफ्रीका में जैसे ही भारत ने धोनी की कप्तानी में विश्वकप जीता उसके जश्न में पूरा भारत डूब गया था। मुझे याद है उस समय पूरे भारत के क्रिकेटिया फैन्स की तरह हम भी बारिश के बीच कानपुर की गलियों में ढोल और ताश लेकर बांग्लादेश से मिली हार को भूलकर, पाकिस्तान व विश्वकप में मिली जीत की दोहरी ख़ुशी का जश्न मना रहे थे। उस समय ऐसा लगा मानो धोनी ने हम जैसे फैन्स के दिलों में एक नई ऊर्जा का संचार कर दिया हो और भारतीय क्रिकेट के फर्श से अर्श में जाने का सिलसिला शुरू हो चुका हो।
इस पर बशीर बद्र की एक पंक्ति याद आती है कि जिस दिन से चला हूँ मंजिल पर निगाह है मेरी, आखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा। इसी तरह विश्वकप में मानी जा रही कमजोर टीम इंडिया के कप्तान धोनी ने अपनी निगाह सिर्फ विश्वकप पर रखी और उसके रास्ते में पड़ने वाले रोड़ों को पार करते चले गए।
सिग्नेचर शॉट से दिलाई भारत को 2011 विश्वकप जीत
इस विश्वकप के बाद फिर धोनी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और उन्होंने अपना अगला निशाना साधा आईसीसी के 50-50 ओवर विश्वकप व क्रिकेट के सबसे बड़े टूर्नामेंट पर। साल 2011 तक धोनी भी अपनी कप्तानी से लेकर खेल तक सभी कलाओं में 16 कला संपन्न हो चुके थे। जिसके चलते उन्होंने इस बार अपने ही देश मे छक्का मारकर मैच जिताने वाले अंदाज में 28 साल बाद भारत को क्रिकेट का दूसरा विश्वकप जिताया। मुंबई के मैदान में जैसे ही धोनी ने अपने सिग्नेचर शॉट से छक्का मारकर मैच जिताया मुंबई समेत पूरा देश जाम में फंस गया। पूरे भारत में दिवाली मनाई गई सभी ने भारत के जीतने पर पटाखे जलाए। ऐसा हो भी क्यों न आख्रिकार 1983 के बाद पहली बार भारत आधुनिक क्रिकेट में किंग बनकर जो उभरा था। इन सबमें धोनी का काफी योगदान रहा जिन्होंने 2007 के बाद 4 सालों में ऐसी टीम का निर्माण किया जो आगे चलकर विश्व चैम्पियन बनी।
2013 चैम्पियंस ट्रॉफी जीतकर हासिल किया ये मुकाम
धोनी ने विश्वकप 2011 तो जीत लिया था लेकिन उनकी नजरों में अब एक चीज और खटक रही थी। वो था, आईसीसी का तीसरा टूर्नामेंट चैम्पियंस ट्राफी, जो साल 2013 में इंग्लैंड में खेली जानी थी। धोनी की टीम ने इंग्लैंड के लिए उड़ान भरी और अंग्रेजों की सरजमीं पर ट्रॉफी जीतकर टीम इंडिया वापस लौटी। इस तरह भारतीय फैंस पर धोनी ने ये तीसरी ख़ुशी न्यौछावर कर दी। जिसके चलते वो दुनिया के एकमात्र ऐसे कप्तान बने जिन्होंने तीनों आईसीसी ट्राफी अपने नाम की।
धोनी की कप्तानी
इस तरह सौरव गांगुली की कप्तानी में जहां टीम इंडिया ने निडर होकर खेलना तो सीख लिया था मगर बड़ें टूर्नामेंट में कैसे अपने फैसलों पर भरोसा करना है व खिलाड़ियों को कैसे जीत के लिए प्रेरित करना है ये धोनी ने सिखाया। धोनी के करियर में कई ऐसे फैसले रहे जिस पर सभी हैरान रह गए। जैसे टी20 विश्वकप 2007 का अंतिम ओवर जोगिन्दर शर्मा को दे देना प्रमुख रूप से शामिल है। इतना ही नहीं टीम इंडिया में फिटनेस और फील्डिंग का पाठ भी धोनी लेकर आगे आए। जिसे उनके उत्तराधिकारी विराट कोहली आज भारतीय क्रिकेट के लिए बखूबी आगे बढ़ा रहे हैं। इस तरह धोनी ने अपनी कप्तानी में देखा जाए तो शांत रहते हुए सिर्फ हुनर के बल पर एक नए भारतीय क्रिकेट का निर्माण किया जिसकी जड़ें काफी गहरी हो चुकी है। इस पर एक पंकित याद आती है कि वही लोग खामोश रहते हैं अक्सर, जमाने में जिनके हुनर बोलते हैं।
रन आउट से रन आउट तक
पिछले साल 2019 विश्वकप को वैसे भी धोनी का आखिरी विश्वकप कहा जा रहा था। जिसे टीम इंडिया जीतना चाहती थी मगर न्यूजीलैंड के खिलाफ उस मैच में धोनी के रन आउट होते ही भारतीय फैन्स की उम्मीदें भी टूट गई और टीम इंडिया हारकर बाहर हो चली। इस तरह रन आउट से शुरू हुई धोनी की गाथा संजोग से रन आउट पर ही खत्म हुई। उनके संन्यास लेने पर मैंने कभी नहीं सोचा था कि उसी लम्बे बाल वाले लड़के का क्रिकेट देखते - देखते मैं एक दिन उनके करियर के सफर को यादकर उसे शब्दों में पिरो दूंगा और जब भी धोनी के करियर को सोचता हूँ तो रहमान फारिस की एक पंक्ति याद आती है कि कहानी खत्म हुई, और ऐसे खत्म हुई , कि लोग रोने लगे तालियां बजाते हुए।