Mahakumbh 2025: नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया के बारे में हर व्यक्ति जानना चाहता है। ज्यादातर ये लोग समाज से अलग रहते हैं, लेकिन कुंभ के दौरान पवित्र नदियों के घाट पर बड़ी संख्या में नागा साधु आपको देखने को मिल सकते हैं। नागा शब्द संस्कृत के 'नग' शब्द से निकला है, जिसका अर्थ होता है पहाड़ा। नागा साधु पहाड़ों पर रहकर ही कठिन तपस्या करते हैं, इसलिए इन्हें नागा साधु के नाम से जाना जाता है। ऐसे में आज हम आपको बताने वाले हैं कि, नागा साधु और नागा संन्यासी बनने की प्रक्रिया क्या है और इनका जीवन कैसा होता है।
नागा साधु कैसे बनते हैं
अगर आप सोचते हैं कि नागा साधु और नागा संन्यासी एक हैं तो आप गलत हैं। नागा साधु और नागा संन्यासी में उतना ही अंतर है जितना एक सैनिक और कमांडो में, जैसे हर सैनिक कमांडो नहीं बन पाता वैसे ही हर नाग साधु संन्यासी नहीं बन पाता। यानि, संन्यासी बनना साधु बनने से ज्यादा कठिन है। नागा संन्यासी बनने के लिए 12 साल की कठिन तपस्या करनी पड़ती है, और शुरुआत अपने पिंड दान से होती है।
पहले चरण में नागा साधु को अपने घर से भिक्षा लानी होती है। इसके लिए भी एक शर्त है कि, माता-पिता से ही भिक्षा लानी है और ऐसा रूप बनाकर जाना है कि माता पिता पहचान न पाएं। दूसरे चरण में नागा साधु को किसी पवित्र नदी के किनारे जाकर 14 पीढ़ियों का पिंडदान करना होता है। इसके बाद माता-पिता चाहे जीवित हों या मृत उनका भी पिंडदान किया जाता है। अंत में अपना पिंडदान भी करना होता है। पिंडदान के बाद जब साधु कुंभ में पहली डुबकी लगाता है तो संसार से उसके सभी नाते-रिश्ते टूट जाते हैं।
नागा साधु की साधना
शुरुआती शर्तों को पूरा करने के बाद नागा साधु हिमालय की कंदराओं में गुरु की छत्रछाया में साधना करते हैं। ये साधु बर्फीले पानी में स्नान करते हैं और सिर्फ कंदमूल और फल खाते हैं। नदी के जल को पीते हैं और वस्त्रहीन रहते हैं। इनका वस्त्र भभूत होती है। कठिन तपस्या, नागा साधु की प्रतिरोधक क्षमता को इतना बढ़ा देती है कि ये किसी भी हालात में रह सकते हैं। साथ ही तपस्या के जरिये ही इन्हें अलौकिक शक्तियां भी प्राप्त होती हैं।
कुंभ से निकलते वक्त क्यों नहीं दिखे नागा साधु?
जब भी कुंभ का मेला लगता है तो नागा साधुओं के दल बड़ी संख्या में दिखाई देते हैं। लेकिन कुंभ समाप्त होने के बाद ये कहां चले जाते हैं, इसकी जानकारी किसी को नहीं होती। इसका कारण है कि, नागा साधु रात के घोर अंधेरे में अपने मार्ग पर निकलते हैं। कुछ नागा साधु खेत-खलिहान, सड़क के मार्ग से हिमालय की कंदराओं में चले जाते हैं। वहीं कई नागा साधु देश भ्रमण पर निकलते हैं।
कब से शुरू हुई नागा साधुओं की परंपरा
धर्म के जानकारों के अनुसार, गुरु शंकराचार्य ने नागा संन्यासियों की परंपरा शुरू की थी। शुरुआत में नागा साधुओं को 4 मठों में दीक्षा दी जाती थी, लेकिन कालांतर में इनकी संख्या बढ़कर 13 हो गई। वहीं पौराणिक शास्त्रों के अनुसार महर्षि वेदव्यास ने इस परंपरा की शुरुआत की थी। उनके समय में नागा संन्यासी नगर-नगर भ्रमण करते थे और शास्त्रों का प्रचार करते थे। आराम करने के लिए ये वनों में रहते थे।
देश और धर्म की रक्षा के लिए उठाते हैं अस्त्र-शस्त्र
नागा साधु शास्त्र के भी जानकार होते हैं और शस्त्र विद्या भी जानते हैं। कहा जाता है कि, जब देश या सनातन धर्म पर खतरा मंडराता है तो धर्म की रक्षा के लिए धर्मयुद्ध लड़ने नागा साधु आते हैं। नागा साधु धर्म की रक्षा के लिए जान लेने से भी और जान देने से भी पीछे नहीं हटते।
नागा साधु की अंतिम यात्रा
मृत्यु के बाद नागा साधु को जल या थल समाधि दिलाई जाती है। इनका दाह संस्कार इसलिए नहीं किया जाता, क्योंकि ये जीते जी ही अपना पिंड दान कर चुके होते हैं।
(Disclaimer: यहां दी गई जानकारियां धार्मिक आस्था और लोक मान्यताओं पर आधारित हैं। इसका कोई भी वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। इंडिया टीवी एक भी बात की सत्यता का प्रमाण नहीं देता है।)
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