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Mokshasthali Gaya: 'मोक्षस्थली' गया के अक्षयवट में सुफल के बाद ही सफल माना जाता है श्राद्धकर्म

Mokshasthali Gaya: मान्यता है कि गया के अक्षयवट स्थित विपंडवेदी पर पिंडदान के बाद गयावाल पंडों के सुफल के बाद ही श्राद्धकर्म को पूर्ण या सफल माना जाता है।

Reported By : IANS Edited By : Ritu Tripathi Updated on: September 19, 2022 12:09 IST
AkshayVat- India TV Hindi
Image Source : INDIA TV AkshayVat

Mokshasthali Gaya: पितरों (पूर्वजों) की मुक्ति और उनकी आत्मा की शांति के लिए पितृपक्ष में पिंडदान के लिए गया को श्रेष्ठस्थल माना गया है। आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से आश्विन महीने के अमावस्या तक को पितृपक्ष या महालया पक्ष कहा गया है। इस पक्ष में देश, विदेश के लाखों लोग गया आकर पितरों की पिंडदान और तर्पण करते हैं।

कहा जाता है कि पहले गया में 365 पिंडवेदियां थी लेकिन फिलहाल 54 पिंडवेदियां है, जिसमें 45 पिंडवेदी और नौ तर्पणस्थल है जहां लोग पितृपक्ष में पुरखों की मोक्ष प्राप्ति के लिए पिंडदान और तर्पण करते हैं। मान्यता है कि गया के अक्षयवट स्थित विपंडवेदी पर पिंडदान के बाद गयावाल पंडों के सुफल के बाद ही श्राद्धकर्म को पूर्ण या सफल माना जाता है।

अन्य पिंडवेदियों पर आम तौर पर तिल, गुड़, चावल, जौ से पिंडदान किया जाता है कि लेकिन अक्षयवट में खोआ, खीर से पिंडदान करने की परंपरा है। ऐसी मान्यता है कि यहां पिंडदान करने से पितर को सनातन अक्षय ब्रह्न्लोक की प्राप्ति होती है।

Mokshasthali Gaya

Image Source : IANS
Mokshasthali Gaya

अक्षयवट के पंडा विरन लाल ने आईएएनएस को बताया कि गया में पिंडदान कर्मकांड की शुरूआत फल्गु से होती है, वहीं, अंत अक्षयवट में होती है। ब्रह्म योनि पहाड़ के तलहटी में स्थित अक्षयवट के संबंध में मान्यता है यह सैकड़ों वर्ष पुराना वृक्ष है, जो आज भी खड़ा है।

गया श्राद्ध का विधान कब से प्रारंभ हुआ, इसका कहीं वर्णन नहीं मिलता। कहा जाता है कि अनादि काल से यहां कर्मकांड चला आ रहा है, तबसे अक्षयवट की वेदी पर पिंडदान करना आवश्यक माना जा रहा है।

तीर्थवृत सुधारिनी सभा के अध्यक्ष गजाधर लाल बताते हैं कि धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक अक्षयवट के निकट भोजन करने का भी अपना अलग महत्व है। अक्षयवट के पास पूर्वजों को दिए गए भोजन का फल कभी समाप्त नहीं होता। वे कहते हैं कि पूरे विश्व में गया ही एक ऐसा स्थान है, जहां सात गोत्रों में 121 पीढ़ियों का पिंडदान और तर्पण होता है।

यहां पिंडदान में माता, पिता, पितामह, प्रपितामह, प्रमाता, वृद्ध प्रमाता, प्रमातामह, मातामही, प्रमातामही, वृद्ध प्रमातामही, पिताकुल, माताकुल, श्वसुर कुल, गुरुकुल, सेवक के नाम से किया जाता है। गया श्राद्ध का जिक्र कर्म पुराण, नारदीय पुराण, गरुड़ पुराण, वाल्मीकि रामायण, भागवत पुराण, महाभारत सहित कई धर्मग्रंथों में मिलता है।

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अक्षयवट में धागा बांधने की भी परंपरा है। कहा जाता है कि यहां धागा बांधने से मन्नत मांगने से कार्य पूरे हो जाते हैं।

गया श्राद्ध में अक्षयवट की महत्ता इसी से आंकी जा सकती है कि गयावाल पंडा अक्षयवट में आकर पितर पूजा करने वालों को अंतिम सुफल प्रदान करते हैं। उन्होंने बताया कि जो भी गया श्राद्ध करने के निमित्त आते हैं सर्वप्रथम अपने गयावाल पंडा के चरण पूजा करते हैं। गया वाले पंडा के निर्देशानुसार कोई अन्य ब्राह्मण विभिन्न विधियों पर पिंडदान तथा तर्पण का विधि विधान पूर्ण कराते हैं।

जब सभी स्थानों पर पिंडदान तथा तर्पण का कार्य पूर्ण हो जाता है तब गयावाल पंडा अपने यजमान के साथ अक्षयवट जाते हैं, यहां एक वेदी पर पिंडदान करने के पश्चात पंडा उन्हें सुफल प्रदान करते हैं।

पंडा उन्हें आशीर्वाद के तौर पर प्रसाद भेंट करते हैं। गया श्राद्ध का कर्मकांड अक्षयवट में ही संपन्न होता है। अक्षय वट में शुभ फल प्राप्त करने के बाद ही गया श्राद्ध को पूर्ण हुआ माना जाता है।

उल्लेखनीय है कि श्रद्धालु एक दिन, तीन दिन, सात दिन, 15 दिन और 17 दिन तक का कर्मकांड करते हैं, लेकिन सुफल के लिए अंतिम पिंडदान अक्षयवट में ही करना होता है।

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