Wednesday, January 15, 2025
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Mahakumbh 2025: कैसे और क्यों की गई अमृत की खोज? महाकुंभ से सीधा है इसका संबंध; जानिए पौराणिक कहानी

Mahakumbh: महाकुंभ का पहला अमृत स्नान बीते दिन संपन्न हुआ। ऐसे में आइए जानते हैं एक पौराणिक कथा जिससे आपको पता चलेगा कि आखिर क्यों करनी पड़ी थी देवों को अमृत की खोज...

Written By: Shailendra Tiwari @@Shailendra_jour
Published : Jan 15, 2025 12:01 IST, Updated : Jan 15, 2025 12:24 IST
Mahakumbh 2025
Image Source : INDIA TV महाकुंभ का इतिहास अमृत की खोज से जुड़ा हुआ है।

Kumbh Mela 2025: 12 वर्षों बाद दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक आयोजन महाकुंभ की शुरुआत 13 जनवरी से हो चुकी है। इधर महाकुंभ का पहला अमृत स्नान (शाही स्नान) भी 14 जनवरी को संपन्न हो चुका है। करोड़ों की संख्या में लोग महाकुंभ स्नान के लिए प्रयागराज आ रहे हैं। 14 जनवरी को 3.5 करोड़ श्रद्धालुओं ने अमृत स्नान किया, जबकि 12 जनवरी को 1.65 करोड़ लोगों ने संगम तट पर डुबकी लगाई। ऐसे में हर किसी के मन में कई महाकुंभ को लेकर कई सवाल जरूर आते हैं जैसे अमृत स्नान की शुरुआत कैसे हुई और क्या जरूरत आन पड़ी जिसकी वजह से समुद्र मंथन किया गया?

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धार्मिक मान्यताओं की मानें तो प्रयागराज के जिस संगम तट पर महाकुंभ 2025 आयोजित हो रहा है, वहां सदियों पहले अमृत की एक बूंद गिरी थी, जो समुद्र मंथन में निकला था। आखिर क्या है समुद्र मंथन और कैसे निकला अमृत? इसका वर्णन विष्णु पुराण में है।

किनके पुत्र हैं देव व असुर?

विष्णु पुराण के मुताबिक, सतयुग में देवों और असुरों के बीच संघर्ष काफी बढ़ गया तो उनके बीच सहमति बनाने के प्रयास के लिए समुद्र मंथन का सहारा लिया गया। हुआ कुछ ऐसा कि बह्मा के आदेश पर ऋषि कश्यप ने प्रजापति दक्ष के दो पुत्रियां दिति और अदिति से विवाह किया। दिति के पुत्रों को दैत्य (असुर) अदिति के पुत्रों को आदित्य (देवता) कहा गया। त्रिदेव और सप्तऋषियों के आदेश व सलाह पर देव और असुरों को ही जीवन की प्रक्रिया और इसका संचालन करना था।

चूंकि देव शांत स्वभाव वाले थे तो उन्हें ग्रह-नक्षत्रों और तारामंडल का अधिपति बनाया गया, इस कारण उन्हें स्वर्ग दिया गया। वहीं, असुर बचपन से चंचल स्वभाव के थे, इस कारण उन्हें पाताल लोक की ऊर्जा का स्वामी बनाया गया, जो कि भूगर्भ की हलचल के लिए अनिवार्य था। यह बंटवारा संसार के संतुलन को देखते हुए किया गया, पर असुरों को लगा  कि उनके साथ छल किया गया है इस कारण वे देवों से युद्ध करने लगे कि स्वर्ग और पृथ्वी पर उनका राज होना चाहिए।

देवों को होने लगा था अभिमान

चूंकि देवताओं के पास यज्ञ-होम की शक्ति थी, इसलिए वे हर बार असुरों पर विजय पा रहे थे, लगातार हारते और मौत को गले लगाते असुरों को निराशा और देवताओं को अभिमान होने लगा। असुरों का बुरा हाल देख उनके गुरु शुक्राचार्य भगवान शिव के पास कैलाश पर्वत पहुंच गए। माना जाता है कि भोले शंकर सभी योगियों के गुरु हैं और उनके पास कई शक्तियां हैं। अगर वे विनाश के स्वामी हैं तो वे जीवन की उत्पत्ति भी कर सकते हैं। महादेव संसार में मृत संजीवनी विद्या के जनक और उसे सिद्ध करने वाले महायोगी भी हैं।

शुक्राचार्य ने महादेव से की विनती

दैत्यों के हार से परेशान शुक्राचार्य ने इसी मृत संजीवनी विद्या को सीखने के लिए भगवान शिव से विनती की। इसके लिए उन्होंने शिव स्तुति की और कहा हे महादेव जिस तरह असुर लगातार हार और मृत्यु गति को प्राप्त हो रहे हैं, इस तरह तो दैत्य जाति का नाश हो जाएगा। इस कारण उन्होंने महादेव से मृत संजीवनी विद्या सिखाने को कहा। इस पर शिवजी ने कहा कि यह विद्या मैं आपको अकेले नहीं सिखा सकता, क्योंकि आपकी मंशा आज नहीं तो कल छल करेगी, इस कारण अगली बार आप जब आएं तो इंद्र को साथ लाना। जो पहले मेरे पास आएगा मैं उसे यह विद्या सीखा दूंगा।

यह जान देवराज इंद्र और गुरु शुक्राचार्य दोनों ही साथ पहुंच गए। उस समय महादेव ध्यान में लीन थे। शुक्राचार्य पहुंचते ही महादेव के चरणों में दंडवत लेट गए जबकि इंद्र अभिमान के कारण एक पत्थर पर बैठ गए। जब महादेव की आंख खुली तो उन्होंने शुक्राचार्य को देखा, तभी इंद्र भी उठ गए और शिवजी को प्रणाम किया। इस पर महादेव ने कहा आप दोनों एक साथ आ गए, इस कारण यह विद्यादान फिर नहीं किया जा सकता, वैसे भी इस विद्या को सीखने के लिए शरीर का तपनिष्ठ होना आवश्यक है, जो अधिक तपनिष्ठा की परीक्षा देकर योग्यता सिद्ध करेगा संजीवनी विद्यादान उसी को किया जाएगा। फिर शुक्राचार्य ने तपनिष्ठा की परीक्षा दी और सफल हो गए। फिर महादेव ने उन्हें संजीवनी विद्या सीखा दी।

इसके बाद जब दोबारा युद्ध हुआ और असुर मरे तो शुक्राचार्य ने मृत दानवों को संजीवनी विद्या से जीवित कर दिया। इससे देवता युद्ध हार गए और स्वर्ग पर दानवों का अधिकार हो गया। हार से निराश होकर देवगण भगवान विष्णु के पास गए।

भगवान विष्णु ने दी थी सलाह

संसार का हाल देख नारायण ने कहा कि संजीवनी विद्या तो नहीं है मेरे पास, पर एक उपाय बता सकता हूं जिससे आप अमर हो जाएंगे। भगवान विष्णु ने कहा कि समुद्र देव के पास अमृत समेत कई रत्न है, जिसे वे आसानी से देंगे नहीं ऐसे में आपको समुद्र मंथन करना होगा, जिसे देवता अकेले नहीं कर सकते। इसके लिए असुरों और देवों को साथ आना होगा।

पर देवों को भी यह सोचना होगा कि उन्होंने ऐसी क्या गलती की जिससे उनका यह हाल हुआ। विचारों का भी मंथन जरूरी है, तभी यह संभव होगा। आगे विष्णु भगवान ने कहा क सृष्टि के लिए सभी एक हैं, इस कारण देवों और असुरों को इसके लिए साथ आना होगा। अब यह देवराज पर निर्भर हैं कि वे असुरों को कैसे इसके लिए मनाते हैं? यह एक परीक्षा है कि देव अमृत के लायक हैं या नहीं।

देवराज ने ऐसे असुरों को मनाया

नारायण की बात सुन देवराज इंद्र पाताल लोक गए और महराज बलि से मिलने की इच्छा जताई। महराज बलि ने भी इंद्र का स्वागत किया, पर राहु ने पूछा कि क्या हारे हुए इंद्र शरण मांगने आए हैं, इस पर इंद्र कोध्रित तो हुए पर चुप रहे। कुछ देर पर इंद्र ने बलि को स्वर्ग जीतने की बधाई दी और कहा कि युद्ध में हार-जीत लगी रहती है, कई बार आप हारे और इस बार हम। इस बार संजीवनी विद्या आपकी जीत का सहारा बनी, लेकिन मान लीजिए कल को हम फिर ये युद्ध करें तो? इस पर शुक्राचार्य ने कहा कि मैं संजीवनी विद्या भूला नहीं हूं देवराज। मैं पुन: असुरों को जीवित कर दूंगा। इस पर देवराज ने कहा कि आप समझे नहीं दैत्यगुरु। मेरे कहने का तात्पर्य था कि संजीवनी सिर्फ आपके पास है, यानी जबतक आप हैं तब तक यह विद्या है। इंद्र की बात दैत्यगुरु को समझ आ गई। वहीं, असुरों और दैत्यों ने भी पहली बार देवताओं के किसी बात से सहमति जताई।

देवराज परीक्षा में पास हुए, फिर शुरु हुआ समुद्र मंथन। इस मंथन में 14वें रत्न के रूप में अमृत मिला। जिसे असुरों ने भी पाने की इच्छा जताई। संघर्ष के दौरान 4 बूंदे जो पृथ्वी पर, प्रयागराज, उज्जैन, हरिद्वार और नासिक में आ गिरी, इस कारण कुंभ मेला इन्हीं जगहों पर लगता है।

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