नई दिल्ली। हम सुरक्षित और बेहतर निवेश के लिए इंश्योरेंस, म्युचुअल फंड, बैंक एफडी जैसे दूसरे फाइनेंशियल टूल्स में निवेश करते हैं। वहीं घर खरीदने और दूसरी जरूरतों के लिए हम बैंकों से कर्ज भी लेते हैं। लेकिन अक्सर हम प्रोडक्ट की नियम और शर्तों जाने परखे बिना एजेंट की बातों में आ जाते हैं और फिर बाद में पछताते है। इस मिस सेलिंग के बारे में हमें तब पता चलता है, जब हमें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। ऐसे में जरूरी है कि हम जब वह प्रोडक्ट ले रहे हों, उस वक्त ही उन प्रोडक्ट की बारीकियां समझ लें। आइए इंडिया टीवी पैसा की टीम बता रही है कंपनियों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले कुछ लुभावने ऑफर्स की पीछे की सच्चाई के बारे में।
जीरो कॉस्ट पर क्रेडिट कार्ड
आपने ऐसे कई विज्ञापन ही नहीं केवल बल्कि पर्सनल ई-मेल्स और SMS भी प्राप्त किए होंगे। जहां वह आपको जीरो कॉस्ट पर क्रेडिट कार्ड के नाम पर ललचाते है। लेकिन यह समझना जरूरी होता है कि आखिर क्यों फाइनेंस कंपनी अपना क्रेडिट कार्ड जीरो कॉस्ट पर बेच रही है। यह आपको कंपनियों के नियमों और शर्तों के पढ़ने के बाद पता चलता है। इसका मतलब हो सकता है कि पहले साल के लिए आपकी कार्ड फीस माफ की गई है और उपभोक्ता को अगले साल से भुगतान करना होगा। सामान्य तौर पर फीस उस स्थिति में माफ की जाती है जब उपभोक्ता एक साल में तय सीमा से ज्यादा खर्च करता है। उदाहरण के रूप में अगर कार्ड पर एक साल में 1 लाख से ज्यादा खर्च करता है तो उपभोक्ता को कोई फीस नहीं देनी होगी। लेकिन अगर कार्डहोल्डर ने इस लिमिट को पार नहीं किया तो उसे इयरली फीस देनी पड़ेगी।
5000 रुपए का निवेश कर बनें करोड़पति
अक्सर हमें छोटे से निवेश के बल पर 15 या 20 साल में करोड़पति बनाने का सपना दिखाया जाता है। लेकिन अक्सर ऐसे ऑफर्स जालसाजी के लिए इस्तेमाल होते है। इन विज्ञापनों में उन लोगों को लुभाने की कोशिश की जाती है जो लंबे समय तक पैसा इकट्ठा करने की प्लानिंग कर रहे है। हालांकि यह समझना जरूरी है कि करोड़ के आंकड़े तक पहुंचने के लिए कैसे इन नंबरों का प्रयोग किया गया है। कंपनी अपना अंतिम आंकड़ा कैलक्युलेट करते वक्त अपना औसत रिटर्न 20 से 25 फीसदी मानकर चलती है। यह ज्यादातर तब होता है जब इक्विटी मार्केट में तेजी की उम्मीद होती है। लेकिन शेयर बाजार कई दौर से गुजरता है और असल में औसतन रिटर्न बहुत ही कम होता है। अगर निवेशक 20 वर्षों तक 5000 रुपए प्रति माह निवेश करता है और औसतन रिटर्न 12 फीसदी है तो निवेशक को करीब 50 लाख रुपए मिलेंगे। साथ ही विज्ञापन में अन्य अतिरिक्त चार्जेस नहीं बताए जाते। पोस्ट चार्जेस और कुल रिटर्न काफी कम होता है।
सिंपल इंट्रेस्ट रेट पर पर्सनल लोन
अक्सर पर्सनल लोन देने वाले एजेंट अौर कंपनियां सिंपल इंट्रेस्ट रेट पर लोन ऑफर करती हैं। हालांकि पर्सनल लोन पर मौजूदा ब्याज दरें 13 फीसदी से लेकर 18 फीसदी तक के बीच में हैं। तो ऐसे में यह कैसे संभव है कि वह कंपनी या एजेंट आपको उस रेट पर लोन मुहैया कराएगा जो कि बाजार में चल रहे रेट की तुलना में बेहद कम है? अगर आप विज्ञापन में पर्सनल लोन 9 फीसदी का ऑफर देखते है तो इसका मतलब होता है कि ब्याज असल लोन अमाउंट के हिसाब से कैलक्युलेट होगा न कि रिड्युसिंग बैलेंस मैथड पर। इसलिए कुल ब्याज दर जिनका भुगतान किया जाता है लोन की आखिरी बिल अवधि में वो 16 फीसदी से भी ज्यादा होता है। लोन लेने वालों को लुभाने के लिए कम आंकड़े दिखाए जाते हैं।
यील्ड और कूपन रेट में समझें अंतर
विज्ञापनों में अक्सर रिटर्न के आंकड़ों को बढ़ा चढ़ा कर बताया जाता है। खासकर की तब जब नॉन कंवर्टेबल डिवेंचर्स (NCDs) या बॉन्ड्स ऑफर किए जाते हैं। डेट इंस्ट्रूमेंट्स एक निश्चित सालाना दर पर ब्याज देते है। जिन्हें कूपन रेट भी कहा जाता है। हालांकि यील्ड और कूपन रेट में फर्क होता है। यील्ड में कंपाउंडिंग फैक्टर होता है जबकि कूपन रेट में केवल प्योर ब्याज देना होता है। इसे ऐसे समझ सकते हैं। मान लीजिए आपको बॉण्ड पर 11 फीसदी की दर से ब्याज मिलना है, लेकिन अगर निवेशक सालाना कंपाउंडिंग विकल्प का चयन करता है। तो इफेक्टिव यील्ड 11 फीसदी होगा। लेकिन पैसों को तिमाही के आधार पर कंपाउंड किया जाता है तो इफेक्टिव यील्ड 13.7 फीसदी होगा। ऐसे में अगली बार बॉण्ड लेते समय कूपन रेट और यील्ड के बारे में जरूर पड़ताल कर लें।
इंश्योरेंस पर 10 फीसदी बोनस का वादा
इंश्योरेंस कंपनियों द्वारा बेचे जाने वाले ट्रैडिशनल प्लान के विज्ञापनों में बोनस या फिर एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी प्रॉफिट, जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। बोनस शब्द इतना लुभावना लगता है इनके जाल में सभी फंस जाते हैं। इसलिए यह समझना जरूरी है कि बोनस सम एश्योर्ड (sum assured) पर कैलक्युलेट किया जाता है न कि प्रीमियम पर। ट्रैडिशनल पॉलिसी में सम एश्योर्ड (sum assured) कम होता है जिसकी वजह से कुल रिटर्न 6 फीसदी के आस पास होता है।
20 फीसदी डाउन पेमेंट, EMI पजेशन के बाद
डेवेलपर्स यह स्कीम निकालते है जहां पर खरीदार को केवल डाउनपेमेंट करनी होती है। EMI पजेशन के बाद शुरू होती है। हालांकि तब तक खरीदार को लोन पर इंट्रेस्ट चुकाना पड़ता है। वहीं अगर प्रोजेक्ट अगर समय पर पूरा नहीं हो पाता। तो इसकी भी मार कंज्यूमर पर ही पड़ती है। ऐसे में खरीदार को बिल्डर या डेवेलपर की शर्तों को एक बार सुनिश्चित कर लेना चाहिए। ताकि डिफॉल्ट और देरी की स्थिति में पूरे लोन की भरपाई खरीदार को न करनी पड़े। साथ ही यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे ऑफर्स सीमित अवधि के लिए होते है जैसे कि 3 साल तक के लिए। अगर तय सीमा में प्रोजेक्ट खत्म नहीं हुआ तो खरीदार को ही आगे की EMI का भुगतान करना पड़ता है।