नई दिल्ली। भारतीय रिजर्व बैंक के नए गर्वनर उर्जित पटेल ने ब्याज दरों में कटौती कर उपभोक्ताओं को फेस्टिव सीजन का तोहफा तो दिया, लेकिन इसका पूरा फायदा अभी तक कंज्यूमर्स को नहीं मिला है। अपनी पहली मॉनेटरी पॉलिसी में गवर्नर पटेल ने रेपो रेट में 0.25 फीसदी कमी कर बैंकों को साफ संकेत दे दिए कि वो भी ब्याज दरों में कटौती करें।
जनवरी 2015 के बाद से रिजर्व बैंक ने रेपो रेट में 1.75% की कटौती की है, लेकिन बैंकों ने इसका पूरा फायदा उपभोक्ताओं तक नहीं पहुंचाया है, इसके पीछे कई कारण हैं। इंडिया टीवी पैसा की टीम आज इन्हीं कारणों पर प्रकाश डालने वाली है।
कंज्यूमर को क्यों नहीं मिल रहा फायदा?
कंज्यूमर्स को जनवरी, 2015 के बाद से ब्याज दरों में पौने दो फीसदी की कटौती का आधा भी फायदा नहीं मिला है। जनवरी 2015 में जो होम लोन 10.1% पर था, वो अब 9.5% पर मिल रहा है, यानी सिर्फ 0.6% की कमी। डिपोजिट रेट में बैंकों ने 1.25% की कमी कर दी है। सवाल यह है कि बैंक आखिरकार रेपो रेट में कटौती का फायदा कंज्यूमर्स तक क्यों नहीं पहुंचा रहे हैं।
बैंकिंग सेक्टर के जानकारों के मुताबिक, इसकी कई वजह हैं। बैंक कर्ज तभी सस्ता कर सकते हैं जब उनके लिए पैसे जुटाने की लागत यानी कॉस्ट ऑफ फंडिंग कम हो, पर्याप्त लिक्विडिटी हो और कर्ज वसूलने का भरोसा हो।
- कॉस्ट ऑफ फंडिंग
बैंक जब भी ब्याज दर घटाते हैं, तो उन्हें न सिर्फ कर्ज, बल्कि डिपोजिट भी सस्ता करना पड़ता है। कर्ज सस्ता करने से अमूमन बैंक का पूरा लोन पोर्टफोलियो प्रभावित होता है। यानी उन्हें हर तरह के लोन पर ब्याज दरों में कटौती करनी होती है और फ्लोटिंग रेट पर लोन से होने वाली ब्याज आय घट जाती है।
इसमें पुराने लोन भी शामिल होते हैं। लेकिन जब डिपोजिट रेट कम होते हैं, तो बैंक सिर्फ नए डिपोजिट पर दरों में कटौती कर सकते हैं, पुराने डिपोजिट पर नहीं। इसके असर से ब्याज दर घटाने से बैंकों की ब्याज आय में फौरी तौर पर गिरावट आ जाती है।
रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, बैंकों की डिपोजिट ग्रोथ 16 सितंबर को खत्म हुए पखवाड़े में प्रतिशत में तो करीब-करीब पिछले साल के स्तर पर ही रही, लेकिन डिपोजिट की रकम में करीब पैंसठ हजार करोड़ रुपए की कमी आई है। यानी ब्याज दर में कमी का असर डिपोजिट ग्रोथ पर दिखने लगा है।
- कैश रिजर्व रेश्यो यानी सीआरआर
बैंकों के लिए फंड की लागत कम करने का तरीका होता है सीआरआर में कटौती। ये वो रकम होती है जो बैंकों को रिजर्व बैंक के पास रखनी होती है और जिस पर उन्हें कोई ब्याज नहीं मिलता। अभी सीआरआर 4% है, लेकिन बैंक इसे और कम करने की मांग करते रहे हैं। अगर इसमें आधा प्रतिशत की कमी होती है, तो बैंकिंग सिस्टम में 43,000 करोड़ आ जाएंगे, जो बैंकों की लिक्विडिटी बढ़ाएगा। लेकिन पूरे बैंकिंग सिस्टम में अभी लिक्विडिटी की कोई दिक्कत नहीं है, इसलिए सीआरआर घटाए जाने की उम्मीद नहीं है। इसका सबूत है बैंकों का एसएलआर यानी स्टैचुअरी लिक्विडिटी रेश्यो. रिजर्व बैंक ने इसकी न्यूनतम सीमा 21% रखी है, लेकिन 16 सितंबर तक बैंकों ने एसएलआर में 26.8% फंड रखा था। साफ है कि बैंकों के पास कर्ज देने के लिए पैसे हैं।
- बैंकों का बढ़ता एनपीए
बैंकों के कर्ज सस्ता ना करने के पीछे असली वजह है उनके नॉन-परफॉर्मिंग एसेट्स यानी एनपीए। बैंकों को एनपीए के लिए प्रोविजनिंग करनी पड़ती है, यानी जिन कर्जों के डूबने का खतरा होता है, उसे ध्यान में रखकर कुछ रकम अलग रखनी पड़ती है। बैंकों के लिए बढ़ता एनपीए कितनी बड़ी समस्या है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगता है कि उन्होंने मार्च 2016 को खत्म हुए वित्तीय साल में 1.71 लाख करोड़ रुपए की प्रोविजनिंग की थी, जबकि ये रकम मार्च 2015 में करीब 74 हजार करोड़ रुपए थी। यही नहीं, बैंकों के कुल कर्ज का करीब 11% ऐसा है, जो बैंकिंग भाषा में स्ट्रेस्ड है यानी इन कर्जों की वसूली में दिक्कतें हैं।
बैंकों को जब ज्यादा प्रोविजनिंग करनी पड़ती है, तो एक तो उनकी लिक्विडिटी पर असर पड़ता है, दूसरा उनके मुनाफे पर भी। इन्हीं वजहों से बैंक पिछले कुछ समय से कर्ज पर ब्याज दर कम करने में हिचकिचा रहे हैं। जब तक एनपीए की समस्या से छुटकारा नहीं मिलता, तब तक रिजर्व बैंक के रेपो रेट घटाने का ज्यादा फायदा उपभोक्ताओं को नहीं मिलने वाला।