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भारत के प्रमुख शहरों में अवैध कॉलोनियों का बढ़ता धंधा, वजह क्‍या? प्रवासी या सरकार की उदासीनता

भारत के दिल्‍ली में करीब एक तिहाई लोग अवैध कॉलोनियों में रहते हैं, यह ऐसी जगह है जहां प्रॉपर्टी मालिकों के पास संपत्ति का कोई कानूनी दस्‍तावेज नहीं होता।

Abhishek Shrivastava
Updated on: July 15, 2016 12:39 IST
Out Of Space: भारत के प्रमुख शहरों में अवैध कॉलोनियों का बढ़ता धंधा, वजह क्‍या? प्रवासी या सरकार की उदासीनता- India TV Paisa
Out Of Space: भारत के प्रमुख शहरों में अवैध कॉलोनियों का बढ़ता धंधा, वजह क्‍या? प्रवासी या सरकार की उदासीनता

नई दिल्‍ली।  दिल्‍ली में करीब एक तिहाई लोग अवैध कॉलोनियों में रहते हैं, यह ऐसी जगह है जहां प्रॉपर्टी मालिकों के पास संपत्ति का कोई कानूनी दस्‍तावेज नहीं होता। ये अवैध कॉलोनियां जोनिंग रेगूलेशन और मास्‍टर प्‍लान का उल्‍लंघन कर बनाई जाती हैं। यहां वाटर कनेक्‍शन, सीवर लाइंस, इलेक्‍ट्रीसिटी और रोड जैसे बुनियादी इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर की हालत भी ज्‍यादा अच्‍छी नहीं होती है, क्‍योंकि अवैध कॉलोनियों का कोई असतित्‍व ही नहीं माना जाता है। कई अवैध कॉलोनियां तो इतनी प्रसिद्ध हैं, जितना की कई अमेरिकी शहर भी नहीं हैं।

यहां घर का किराया तो कम होता है, लेकिन प्रॉपटी की कीमत बहुत ज्‍यादा होती है। इसका कारण यह है कि प्रॉपर्टी मालिकों को लगता है कि सरकार इन कॉलोनियों को वैध कर देगी। इन जीर्णशीर्ण इमारतों को फि‍र से विकसित करना मुश्किल है क्‍योंकि यहां हमेशा निष्‍कासन का डर बना रहता है। दिल्‍ली में हर साल आने वाले हजारों प्रवासी इन कॉलोनियों में वस जाते हैं क्‍योंकि कानूनी रूप से विकसित कॉलोनियों में किराये पर घर मिलना बहुत महंगा है।

हर जगह जमीन, लेकिन रहने के लिए जगह नहीं

दिल्‍ली में जमीन की कोई किल्‍लत नहीं है। यहां इतनी जमीन है कि हर कोई अपने निजी घरों में रह सकता है। दिल्‍ली में तकरीबन 20,000 पार्क और बगीचे हैं। जमीन का बहुत बड़ा हिस्‍सा खाली पड़ा है या बिना उपयोग के है, ऐसा इसलिए है क्‍योंकि इस पर सरकार का कब्‍जा है या इनका प्रॉपर्टी टाइटल कमजोर है। राजनेता और वरिष्‍ठ अधिकारी शहर के बीचों बीच बड़े-बड़े बंगलों में रहते हैं। इनमें से कुछ राजनेताओं ने मूल्‍यवान शहरी जमीन पर फार्म हाउस बना रखे हैं, जबिक कंपनियों और परिवारों को शहर से दूर सेटेलाइट सिटी का रुख करना पड़ रहा है, जहां रियल एस्‍टेट प्राइस कम है। ऐसे में औसत यात्रा की दूरी बढ़ जाती है, सड़कें बहुत संकरी हैं और यही वजह है कि दिल्‍ली दुनिया में सबसे प्रदूषित शहरों में से एक है।

फ्लोर स्‍पेस रेशियो है बहुत कम

दिल्‍ली में फ्लोर स्‍पेस-टू-लैंड रेशियो आमतौर पर दो है। लॉस एजेंलस में यह 13 और सिंगापुर में 25 तक हो सकता है। दिल्‍ली दुनिया के सबसे भीड़भाड़ वाले शहरों में से एक है और यहां फ्लोर स्‍पेस की बहुत ज्‍यादा मांग है। लेकिन रियल एस्‍टेट डेवेलपर्स को यहां लंबी बिल्डिंग बनाने की अनुमति नहीं है। दिल्‍ली में, अपार्टमेंट बिल्डिंग के लिए, रेगूलेटेड फ्लोर एरिया रेशियो (एफएआर) आमतौर पर 2 है। एफएआर, जो एक शहरी योजना अवधारणा है, प्‍लॉट के कुल क्षेत्र पर निर्माणाधीन क्षेत्र का अनुपात होता है। इस हिसाब से दिल्‍ली में डेवेलपर्स को 1000 वर्ग फुट के प्‍लॉट पर 2,000 वर्ग फुट से ज्‍यादा निर्माण करने की अनुमति नहीं है। इतने कम एफएआर का बहुत नुकसान है। मैनहट्टन में एफएआर 15, लॉस एंजेलस में 13, शिकागो में 12, हांगकांग में 12 और बहरीन में 17 तथा सिंगापुर में यह अधिकतम 25 हो सकता है।

लोग नहीं हैं समस्‍या

नाइट फ्रैंक के एक अनुमान के मुताबिक मुंबई में एक लग्‍जरी घर की कीमत भारत में औसत वार्षिक आय का 308 गुना है, जबकि न्‍यूयॉर्क में लग्‍जरी घर की कीमत अमेरिका की औसत वार्षिक आय का 48.4 गुना ही है। प्‍लानर्स इसके लिए मुंबई की बढ़ती जनसंख्‍या को दोष देते हैं, जो कि एक बेकार की बात है। 1984 में शंघाई में औसत फ्लोर स्‍पेस उपभोग 3.6 वर्ग मीटर था। ऊंची बिल्डिंग बनाने की अनुमति दिए जाने के बाद, शंघाई में 2010 तक औसत फ्लोर स्‍पेस उपभोग बढ़कर 34 वर्ग मीटर हो गया। दुनियाभर के शहरों ने ऊंची बिल्डिंग की अनुमति देकर अपना फ्लोर स्‍पेस उपभोग बढ़ाया है। 1910 में मैनहट्टन के 920 वर्ग फीट वाले फ्लोर पर 16 लोग रहते थे, लेकिन 2010 में इस फ्लोर पर केवल चार लोग रहते थे, क्‍योंकि यहां फ्लोर स्‍पेस उपभोग चार गुना बढ़ चुका है। इसलिए बड़े शहरों में, जब जनसंख्‍या बढ़ती है तो फ्लोर स्‍पेस उपभोग भी बढ़ जाता है। लेकिन भारत में यह कड़वा सच है कि योजनाकर इस तथ्‍य की अनदेखी करते हैं या जानबूझकर इस पर ध्‍यान नहीं देते हैं।

Source: Quartz

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