नई दिल्ली। रेल बजट का विश्लेषण बड़ी आसानी से आपको इस नतीजे पर पहुंचा देगा कि यह बजट रेल यात्रियों को बेहतरीन सुविधाएं मुहैया कराने का ‘विजन डॉक्यूमेंट’ है। लेकिन अर्थशास्त्र या बाजार की कसौटी पर इस बजट को कसने में शायद प्रभु चूक गए। 2020 को फोकस में रखकर जिस टी-20 अंदाज में प्रभु ने घोषणाएं कीं, वे निश्चित तौर पर आम आदमी को रेलवे के अच्छे दिनों की तस्वीर दिखाने की कोशिश जरूर थी। लेकिन ठीक उसी समय शेयर बाजार में रेलवे कारोबार से जुड़ी कंपनियों का 5 से 10 फीसदी टूट जाना शायद बाजार को रेल बजट पसंद न आने का ही संकेत था।
रेल बजट पर सोशल मीडिया इंपैक्ट
रेल मंत्री का रेल भाषण सुनकर ऐसा लग रहा था कि इस बजट को बनाने में सोशल मीडिया ने खासी भूमिका निभाई है। SMS पर रेलवे कोच या टॉयलेट की सफाई, बच्चों के लिए गर्म दूध और पानी का विकल्प, ट्रेन में मनोरंजन का इंतजाम, स्टेशनों पर वाई-फाई, स्केलेटर्स, सीसीटीवी जैसी सुविधाओं की बात ये सभी सुविधाएं रेल यात्रियों के उस खास वर्ग से आती हैं, जो यात्रा के दौरान ट्वीट करके अपनी बात रेल मंत्री तक पहुंचाने में सक्षम होते हैं।
रेल बजट को शेयर बाजार का ठंडा रिस्पॉन्स
रेल बजट भाषण के दौरान अगर रेलवे के कारोबार से जुड़ी कंपनियों में ही बिकवाली दिखे तो इसे रेल बजट को शेयर बाजार का ठंडा रिस्पॉन्स ही माना जाएगा। रेल बजट के दिन शेयर बाजार के प्रमुख सूचकांक सेंसेक्स और निफ्टी आधा फीसदी की गिरावट के साथ बंद हुए, जबकि रेलवे कारोबार से जुड़ी कंपनियों में 5 से 10 फीसदी की गिरावट देखने को मिली। सेंसेक्स 23,000 का अहम स्तर तोड़कर 0.49 फीसदी की गिरावट के साथ 22976 के स्तर पर बंद हुआ। वहीं निफ्टी 7,000 के मनोवैज्ञानिक स्तर को तोड़ 0.69 फीसदी की गिरावट के साथ 6,970 के स्तर पर बंद हुआ। रेलेवे स्टॉक्स की बात करें तो कालिंदी रेल – 9.26%, टेक्समैको रेल – 8.78%, टीटागढ़ वैगन – 8.4%, कर्नेक्स माइक्रोसिस्टम्स – 4.89% और स्टोन इंडिया – 5.74% की गिरावट के साथ बंद हुए।
रेलवे का अर्थशास्त्र
रेल मंत्री की माने तो वित्त वर्ष 2016-17 के लिए ऑपरेटिंग रेश्यो 92% रहने का अनुमान है। सरल शब्दों में इसका मतलब यह हुआ कि सरकार 100 रुपए की आमदनी में से केवल 8 रुपए ही बचा पाएगी। ऐसे में मौजूदा आर्थिक परिस्थिति में बॉयो टायलेट, स्केलेटर्स, रेलवे सेवाओं का डिजिटाइजेशन, लाइनों का विद्धुतीकरण आदि सुविधाओं का सपना कैसे पूरा किया जाएगा, जबकि यह बात भी ध्यान रखनी होगी कि रेलवे जैसे विशाल नेटवर्क में एक छोटी सी सुविधा सुचारू रूप से चलाने के लिए बड़ी मात्रा में संसाधनों की जरूरत होगी, जो वित्त के अभाव में संभव नहीं। रेलवे के पास यात्री किराया और माल भाड़ा ये दो ही आय के मुख्य स्रोत हैं। अप्रैल 2015 से जनवरी 2016 के दौरान रेलवे के यात्री ट्रैफिक में 1.4 फीसदी की कमी आई है। माल भाड़े के ट्रैफिक में महज 1 फीसदी का इजाफा हुआ है, जिसके 7.7 फीसदी बढ़ने का अनुमान था। यह जानकार आपको हैरानी होगी कि परिवहन बाजार में रेलवे का हिस्सा 1990 में 56 फीसदी से घटकर 2012 में 30 फीसदी हो गया। एक्सिस डायरेक्ट की एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारतीय रेलवे प्रति किलोमीटर यात्री परिवहन में 54 पैसे खर्च करती है और इसके बदले 26 पैसे का राजस्व कमाती है। रेलवे की पतली होती आर्थिक सेहत इन आंकड़ों से ही समझी जा सकती है।
सवाल नहीं मिला जिसका जवाब
बीते एक साल में रेलवे ने यात्री किराए में चार बार बढ़ोतरी की और पिछले बजट में माल भाड़े को भी बढ़ाया। दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय बाजार में गिरती कच्चे तेल की कीमतों से भी डीजल के भाव गिरे, जिससे रेलवे के ईंधन खर्च में कमी आई। इन अनुकूल परिस्थितियों के बाद भी सरकार का राजस्व लक्ष्य 15,000 करोड़ रुपए से चूकने का अनुमान है। अब सवाल यह खड़ा होता है कि फिर सरकार कैसे आने वाले वर्षो में बिना यात्री किराया और माल भाड़ा बढ़ाए या आय का पुख्ता इंतजाम किए वगैर बढ़े हुए राजस्व लक्ष्य को हासिल करेगी? क्योंकि रेलवे की आय बढ़ाने के लिए सुरेश प्रभु ने जिन वैकल्पिक रास्तों को सुझाया है निश्चित तौर पर पुराने तजुर्बे उन पर सवाल खड़ा करते हैं। मसलन, रेलवे की जमीन का कॉमर्शियालाइजेशन, पीपीपी मॉडल से रेलवे का कायाकल्प आदि। इस गुत्थी को सुलझाना तब और कठिन हो जाता है जब इसी साल सातवें वेतन आयोग का पहाड़ सामने हो। ऐसे में एलआईसी या सरकारी कर्ज लेकर दुनिया की सबसे बड़ी परिवहन कंपनी को चलाना कितना मुमकिन है?