वित्त वर्ष 2016-17 भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए उतारचढ़ाव वाला सफर था। उम्मीदें ज्यादा थीं। देश से भी और उसे चलाने वाले शख्स प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी उनसे बेहद ताकतवर जनादेश के कारण बड़े सुधारों की आशा थी। पिछले साल बजट में जहां छोटे-मोटे कुछ आर्थिक सुधार हुए, कोई बड़ा बदलाव देखने को नहीं मिला। भारत आर्थिक तौर पर मजबूत लगा। मगर इसका श्रेय घरेलू वजहों के बजाय दुनिया में तेल के दामों में गिरावट को ज़्यादा मिला।
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शेयर बाजार में फिलहाल कंसॉलिडेशन वाले फेज में हैं। बजट से मार्केट को बहुत उम्मीदें नहीं लगानी चाहिए। हालांकि पहले ग्लोबल इवेंट की बात करते हैं। ब्रिटेन 2017 में यूरोपियन यूनियन से बाहर निकलेगा। फ्रांस और जर्मनी सहित कई यूरोपीय देशों में चुनाव होने जा रहे हैं। अगर इनमें यूरोपियन यूनियन को बांटने में यकीन रखने वाली पार्टियों को जीत मिलती है तो इससे मार्केट पर बुरा असर पड़ेगा।
डोमेस्टिक वजहों में कंपनियों की प्रॉफिट ग्रोथ बड़ा फैक्टर होगा। इसमें गिरावट होने जा रही है। इसके साथ यह भी देखना होगा कि हम नोटबंदी की चुनौती से कितनी जल्दी बाहर आते हैं। एक और समस्या गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स है। जीएसटी को लागू करने की तारीख आने के साथ इकनॉमी को लेकर अनिश्चितता और बढ़ेगी।
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तीसरा फैक्टर बजट हो सकता है। अगर लॉन्ग टर्म कैपिटल गेंस टैक्स में कोई बदलाव होता है तो इसका बुरा असर पड़ेगा। अभी एक साल से अधिक समय तक निवेश करने पर लॉन्ग टर्म कैपिटल गेंस टैक्स नहीं लगता, अगर इसे बढ़ाकर तीन साल किया जाता है तो मार्केट की मुश्किल बढ़ सकती है।
रूरल इंडिया पर बुलिश हैं। सरकार बजट में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के उपाय करेगी। दूसरा सेगमेंट इंफ्रास्ट्रक्चर है। इसमें रोड, हाइवे और रेलवे शामिल हैं। अगले दो-तीन साल तक इनका प्रदर्शन बढ़िया रह सकता है। हम वैसे सेगमेंट पर भी ध्यान दे रहे हैं, जो असंगठित से संगठित क्षेत्र की ओर शिफ्ट हो रहे हैं। यह पेंट या फुटवियर हो सकता है।
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