नई दिल्ली: देशवासियों को महंगी प्याज से राहत देने के लिए सरकार ने 2,000 टन प्याज का आयात किया है। खाद्य मंत्रालय ने बताया कि इसमें से 250 टन प्याज की पहली खेप जेएनपीटी, मुंबई बंदरगाह पर पहुंच चुकी है और इस सप्ताह के अंत तक 2,000 टन की पूरी खेप भी पहुंच जाएगी। सरकार का कहना है कि आयातित प्याज पहुंचने से प्याज की कीमतों में नरमी देखी गई है। तो क्या यह मान लेना चाहिए कि देश में आवश्यक खाद्य सामग्री की बढ़ती कीमतों को नियंत्रित करने का एक मात्र जरिया आयात है। विशेषज्ञों का मानना है कि देश में खाद्य वस्तुओं की कीमतों को नियंत्रित करने के लिए भारी मात्रा में आयात कर उपलब्धता बढ़ाना ही एक मात्र जरिया नहीं बल्कि सप्लाई चेन और भंडारण क्षमता को सुधार करके भी इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है।
खपत से ज्यादा उत्पादन
आंकड़े बताते हैं कि देश में प्याज का उत्पादन खपत से कहीं ज्यादा है लेकिन इसके बावजूद इस सीजन में कीमतें 250 फीसदी तक उछल गई हैं।मई में 1198 रुपए प्रति क्विंटल बिकने वाला प्याज सितंबर आते-आते 4139 रुपए प्रति क्विंटल तक पहुंच गया और कीमतों में यह 250 फीसदी का उछाल भी तब जब उत्पादन पिछले साल की तुलना में मामूली 2.47 फीसदी ही गिरा है। कृषि अर्थशास्त्री देवेंद्र शर्मा ने IndiaTvPaisa.com से खास बातचीत में बताया कि देश में खपत के मुकाबले उत्पादन ज्यादा है। इसके बावजूद कीमतें चढ़ रही हैं। इसका साफ मतलब है प्याज की कालाबाजारी और जमाखोरी हो रही है। देश में सालाना 190 लाख टन के आसपास प्याज का उत्पादन हो रहा है, जबकि खपत 125-130 लाख टन होती है। अगर सरकार इसपर काबू पा ले तो कीमतें अपने आप कम हो जाएंगी।
नीति आयोग ने माना ट्रेडर्स की जेब में गए 8000 करोड़
प्याज की कीमतों पर नीति आयोग की कड़ी नजर है। नीति आयोग ने अपनी जांच में यह माना है कि इस साल प्याज संकट के दौरान ट्रेडर्स ने कीमतों को कृत्रिम रूप से बढ़ाया और इससे उन्हें 8000 करोड़ रुपए का फायदा हुआ।
कहां काम करने की जरूरत?
वाणिज्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव संतोष सारंगी के अनुसार सालाना देश में 30 से 40 लाख टन प्याज खराब हो जाता है। इसकी प्रमुख वजह उचित भंडारण सुविधाओं की कमी है। उनके मुताबिक करीब 190 लाख टन प्याज का उत्पादन होता है। लेकिन उपभोक्ताओं तक केवल 150-160 लाख टन प्याज ही पहुंच पाता है। इस लिए प्याज भंडारण को उन्नत और क्षमता बढ़ाने की जरूरत है। प्याज की कीमतें हर साल सितंबर से नवंबर के दौरान बढ़ती है और इसमें गिरावट का सिलसिला जनवरी से शुरू हो जाता है। दरअसल अक्टूबर से पहले डिमांड और सप्लाई में असमानता के कारण की कीमतों में उछाल आता है।