नई दिल्ली। गगनचुंबी इमारतें, मॉल, मेट्रो, वैश्विक कंपनियों के दफ्तर और बड़ी-बड़ी कंपनियों के सीईओ के पेंट हाउस, ये सब पहचान हैं देश की मिलेनियम सिटी गुड़गांव की। लेकिन इसे इसका आधुनिक स्वरूप देने वाले डीएलएफ के कुशल पाल सिंह को मलाल है कि अब भी यह उनके सपनों वाला भविष्य का शहर नहीं बन सका है। वर्ष 1961 में सेना की नौकरी छोड़कर डीएलएफ में काम शुरू करने वाले सिंह गुरुवार को 90 वर्ष की आयु में कंपनी के चेयरमैन पद से सेवानिवृत्त हो गए। उन्होंने कंपनी की अब सारी जिम्मेदारी अपने बेटे राजीव को सौंप दी है।
डीएलएफ (दिल्ली लैंड एंड फाइनेंसिंग लिमिटेड) को सिंह के ससुर ने 1946 में शुरू किया था। सिंह ने अपने जीवन के छह दशक डीएलएफ को दिए और इसे देश की सबसे बड़ी सूचीबद्ध रियल्टी कंपनी में तब्दील करने में अहम भूमिका अदा की। डीएलएफ को गुड़गांव का और केपी सिंह को डीएलएफ का पर्यायवाची माना जाता है। गुरुवार को कंपनी के निदेशक मंडल की बैठक में राजीव को कंपनी का चेयरमैन नियुक्त किया गया। वहीं सिंह मानद चेयरमैन बने रहेंगे। सिंह ने दिल्ली से सटे गुड़गांव के एक छोटे गांव को वर्ष 1979 के दौरान एक बड़े उपनगर के तौर पर विकसित करने की योजना बनाई थी। वह इसे सिंगापुर की तरह एक उपनगर बनाना चाहते थे, जहां दुनियाभर की कंपनियां आकर अपना परिचालन करें।
इसके लिए उन्होंने गुड़गांव में करीब 3,500 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया और इसे डीएलएफ सिटी के नाम से विकसित करना शुरू किया। हालांकि अब गुडगांव का नाम बदलकर गुरुग्राम किया जा चुका है। उन्होंने कहा कि पूरा विचार था कि जब आप योजना बनाएं तो वह दशकों के हिसाब से ना बनाकर सदियों के लिए बनाएं। बड़ी सड़कें, बड़ी जल निकासी प्रणाली और हर चीज मुख्य राजमार्ग से जुड़ी हो। सिंह ने कहा कि गुड़गांव की परिकल्पना यही थी लेकिन दुर्भाग्य से हम ऐसा नहीं कर सके। सिंह की योजना के हिसाब से गुडगांव में एक विश्वस्तरीय जल निकासी प्रणाली, 16 लेन के राजमार्ग से शहर को जोड़ने वाली चौड़ी सड़के थीं। वह इसे देश की राजधानी का एक प्रमुख उपनगर बनाना चाहते थे। वर्तमान में यह कई सूचना प्रौद्योगिकी, दूरसंचार कंपनियों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय कंपनियों का घर है। लेकिन सिंह के हिसाब से यह शहर अब अस्त-व्यस्त हो गया है।
उन्होंने कहा कि अगर मैं साफ लहजे में कहूं तो मेरा दुख केवल इतना है कि मैं गुड़गांव को वैसे विकसित नहीं कर सका जैसा मैनें सोचा था। यदि कोई मुझसे पूछे कि हमने क्या किया तो मैं कहूंगा कि गुड़गांव का विकास आधा पका केक है। सिंह ने कहा कि राजनीतिक बदलाव के साथ ही डीएलएफ के गुड़गांव रूपी सपने को सरकारी सहायता मिलने में रुकावट आने लगी। इतना ही नहीं सरकारी नियम भी बदल गए। बाहरी विकास शुल्क (ईडीसी) के नाम पर बिल्डरों ने हजारों करोड़ रुपए सरकार को दिए ताकि वह बुनियादी सुविधाओं का विकास कर सके लेकिन हरियाणा सरकार के पास यह पैसा बिना इस्तेमाल के ही पड़ा रहा। उन्होंने कहा कि इमारतें बिना किसी सहायक बुनियादी ढांचे और योजना के खड़ी होती गईं। उन्हें दुख है कि यदि उन्हें उनके हिसाब से इस शहर को विकसित करने दिया गया होता तो यह एक सर्वश्रेष्ठ शहर होता। सिंह ने एक अक्टूबर 1995 को डीएलएफ के चेयरमैन का पद संभाला था।