नई दिल्ली। 29 नवंबर को अपना तीसरा बजट (दूसरा आम बजट) पेश करने जा रहे केंद्रीय वित्त मंत्री के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि वो देश के लिए आर्थिक विकास और राजकोषीय सख्ती (सरकारी खजाने को दुरुस्त रखने की कवायद) में से किसे चुनें। मौजूदा स्थिति को देखते हुए राजकोषीय घाटे पर नियंत्रण बनाम विकास की बहस अब नया मोड़ ले चुकी है।
सरकार के पास विकल्प:
कीनीसियन परिप्रेक्ष्य उच्च वृद्धि दर हासिल करने के लिए सरकारी व्यय की भूमिका पर जोर देता है। इसके हिसाब से जब लोगों के हाथ में ज्यादा पैसा होगा तो वो ज्यादा खर्च करेंगे जिससे वस्तु और सेवाओं की मांग बढ़ेगी, जो उच्च आर्थिक वृद्धि और विकास को बढ़ावा देगी।
इसके उलट एक तर्क यह भी है कि अगर उधारी के जरिए सरकारी खर्च को बढ़ाया जाता है तो इससे ब्याज दर ज्यादा की संभावनाएं बढ़ेंगी। वहीं अगर प्राइवेट सेक्टर में कम निवेश होगा तो ग्रोथ को बल मिलेगा।
लेकिन अगर सरकार घाटे की वित्त व्यवस्था को चुनती है, घाटे को कम करने के लिए ज्यादा से ज्यादा मुद्रा छापती है तो उच्च मुद्रास्फीति की संभावना प्रबल हो जाएगी। उच्च राजकोषीय घाटा चालू खाता घाटा को बढ़ा देगा जिससे जीडीपी की स्थिति दयनीय हो जाएगी।
तस्वीरों में देखिए पिछली बजट की घोषणाएं
Budget 2015 Recall
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ये सभी सैद्धांतिक तर्क आजमाए हुए हैं लेकिन अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति की वजह से बहस अब भी अधूरी की अधूरी ही बनी हुई है कि पूर्ण रोजगार पर काम किया जाए या स्थिर संतुलन पर। अगर अर्थव्यवस्था पर्याप्त क्षमता से कम का इस्तेमाल करते हुए काम करेगी तो चालू वित्त वर्ष में किसी हस्तक्षेप के बाद उत्पन्न हुई कोई अतिरिक्त मांग त्वरित महंगाई को जन्म नहीं देगी। हालांकि अर्थव्यवस्था कुछ समय के लिए स्थाई जरूर हो जाएगी।
क्या कर सकते हैं जेटली:
सार्वजनिक व्यय में वृद्धि के माध्यम से अर्थव्यवस्था को सहारा दिए जाने की जरूरत है, लेकिन विश्लेषक राजकोषीय घाटा, महंगाई और वृद्धि की संभावित जटिलताओं को लेकर चिंतित हैं। इस स्थिति के लिहाज से मौजूदा सरकार की कुछ वित्तीय प्रतिबद्धताएं हैं, जो इस चर्चा को और प्रासंगिक बनाती हैं। वन रैंक वन पेंशन और 7वें वेतन आयोग की सिफारिशें चालू वित्त वर्ष में वित्त विधेयक पर बोझ बढ़ा रही हैं। ऐसी स्थिति में सरकार एक निश्चित दृष्टिकोण अपना सकती है कि उसे क्या करना है। सरकार को वन रैंक वन पेंशन के लिए हर साल 18 हजार करोड़ रुपए से लेकर 20 हजार करोड़ रुपए तक खर्च करने होंगे। वहीं सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के चलते सरकार पर 73 हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। वहीं सरकार पर सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों में नई पूंजी के प्रवाह का दवाब है। हालांकि गनीमत है कि अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कमोडिटी की कीमतें गिरी हुई हैं, यह भारत के लिए एक राहत की बात है।
ऐसे दौर में जब पूरी दुनिया अपस्फीति (नकारात्मक महंगाई) और कम मांग के दौर से गुजर रही है, सरकार का रुख राजकोषीय नीति के लिहाज से बेहद अहम होने जा रहा है। हालांकि कमजोर बाह्य मांग एवं आंतरिक तनाव जिसमें लगातार पड़ने वाला सूखा भी शामिल है, के बाद भी भारत इस वित्त वर्ष में 7 फीसदी की ग्रोथ हासिल करता हुआ दिख रहा है। यह वैश्विक जोखिमों के बीच एक बड़ी उपलब्धि है।
विस्तारवादी राजकोषीय नीतियों की सहायता से तेज वृद्धि संभव है, लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि इस तरह का विकास टिकाऊ होता है और उच्च मुद्रास्फीती एवं देनदारी की लागत को भविष्य में वहन नहीं किया जा सकता है। इसके लिए मेक्रो इकॉनमिक्स स्टेबिलटी काफी अहम है। ब्रिक्स समकक्षों को देखते हुए हमारे लिए यह जरूरी है कि हम विभिन्न मजबूरियों के बावजूद राजकोषीय समेकन पर ध्यान दें।