भारत सरकार ने 1991 में नई आर्थिक नीति लागू की थी, जिसने देश के दरवाजे इकोनॉमिक लिब्रेलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और दुनिया के बड़े बाजारों के लिए खोल दिए। इस नई आर्थिक नीति ने आर्थिक विकास के नवउदारवादी मॉडल को अपनाया। इस मॉडल के तहत सरकार को अर्थव्यवस्था में अपनी भूमिका को कम करना, सरकारी खर्च और सब्सिडी घटाना, मूल्य नियंत्रण को खत्म करना, सरकारी उपक्रमों का निजीकरण, टैरिफ घटाना, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की अनुमति और वित्तीय क्षेत्र पर हल्का नियंत्रण शामिल है।
मनमोहन सिंह ने तैयार किया मॉडल
भारत में नई आर्थिक नीति का ढांचा मनमोहन सिंह ने तैयार किया, जो उस समय वित्त मंत्री थे और बाद में प्रधानमंत्री बने। उन्होंने आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक के साथ भी काम किया था। मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी नई आर्थिक नीति को लागू करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस नीति का परिणाम यह हुआ कि आर्थिक विकास दर ने 1991 से पहले के 3-5 फीसदी दायरे को तोड़ दिया। लेकिन अतिरिक्त संपत्ति का पुर्नवितरण बिगड़ गया। जो लोग पहले से बेहतर स्थिति मे थे उनका लिविंग स्टैंडर्ड और बेहतर हो गया, जबकि बड़ा हिस्सा जो पिछड़ा हुआ था वह और गरीब हो गया। भारत ने उस समय ग्लोबलाइजेशन को अपनाया, जब अंतरराष्ट्रीय संकट पैदा हुआ था। अगस्त 1990 में ईराक ने कुवैत पर हमला कर उस पर कब्जा कर लिया इससे पेट्रोलियम एक्सपोर्ट घट गया। तेल की कीमतें बहुत ज्यादा बढ़ गईं और गल्फ में काम करने वाले भारतीयों द्वारा भेजे जाने वाले धन में भारी गिरावट आ गई। 1991 में दिल्ली के पास 1.21 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार ही बचा, जिससे केवल दो हफ्ते का इंपोर्ट ही किया जा सकता था।
ऐसे हुआ बदलाव
सरकार के सामने सॉवरेन लोन को डिफॉल्ट करने का संकट खड़ा हो गया और उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से सहायता मांगी। इस वित्तीय संकट ने खुले बाजार के पेरोकारों को मौका दिया और उन्होंने प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव को अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के लिए मना लिया। सरकार ने इंपोर्ट कोटा को खत्म कर दिया, 100 फीसदी टैरिफ को घटाकर 25-36 फीसदी के दायरे में ला दिया और रक्षा और राष्ट्रीय रणनीति उद्यमों को छोड़कर सभी के लिए इंडस्ट्रियल लाइसेंस को खत्म कर दिया। पब्लिक सेक्टर का एकाधिकार केवल रक्षा, राष्ट्रीय रणनीति, परमाणु ऊर्जा और रेलवे तक सीमित कर दिया गया। बैंकिंग, इंश्योरेंस, टेलीकम्यूनिकेशंस और एयर ट्रेवल में प्राइवेट इन्वेस्टमेंट की अनुमति दी गई। 34 उद्योगों में विदेशी कंपनियों को 51 फीसदी इक्विटी रखने की अनुमति दी गई। इसके परिणाम उल्लेखनीय रहे। 1991 से 1996 तक औसत वार्षिक जीडीपी की वृद्धि दर 6.7 फीसदी रही। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार बढ़कर 22.74 अरब डॉलर हो गया।
वृद्धि तेज लेकिन रोजगार कम
2000 के बाद विकास दर में तेजी से वृद्धि हुई। मोबाइल फोन और इंटरनेट तथा इंफोर्मेशन टेक्नोलॉजी ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई। मोबाइल फोन के उपयोग में वृद्धि अभूतपूर्व है। 2001 में केवल 3.7 करोड़ यूजर्स थे, जो 2011 में बढ़कर 84.6 करोड़ हो गए। पिछले साल मोबाइल यूजर्स की संख्या एक अरब की संख्या को पार कर गई। 1998-99 में भारत के एक्सपोर्ट में आईटी की हिस्सेदारी 4 फभ्सदी थी, जो 2012-13 में बढ़कर 25 फीसदी हो गई। लेकिन आईटी सेक्टर में केवल 1.25 करोड़ लोगों को ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर रोजगार मिला हुआ है, जो 1.25 अरब जनसंख्या वाले देश में 4.96 करोड़ राष्ट्रीय श्रमिक का केवल 2.5 फीसदी है।
कृषि की हुई अनदेखी
लब्बोलुआब यह है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। 10 में से 7 भारतीय गांवों में रहते हैं। देश के कुल वर्कफोर्स का आधे से थोड़ा ज्यादा हिस्सा कृषि और इससे संबंधित गतिविधियों में लगा हुआ है। आईएमएफ लोन के हिस्से के तौर पर, भारत को अपना राजकोषीय घाटा जीडीपी के 8.2 फीसदी से घटाकर कम करना था। नरसिम्हा राव सरकार ने सिंचाई, जल प्रबंधन, बाढ़ नियंत्रण और वैज्ञानिक अनुसंधान, बिजली उत्पादन तथा संबंधित ग्रामीण जरूरतों पर अपना निवेश घटा दिया। वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन और आईएमएफ के दबाव में भारत ने बाजार नियंत्रण खत्म करना और कृषि इनपुट जैसे रासायनिक उर्वरक और डीजल पर सब्सिडी देना बंद कर दिया। डब्ल्यूटीओ और आईएमएफ के निर्यात आधारित ग्रोथ को महत्व दिए जाने से उत्पादकों ने खाद्यान्न फसलों को छोड़कर नकदी फसलें जैसे कपास, कॉफी, गन्ना, मूंगफली, कालीमिर्च और वेनिला उगाना शुरू कर दिया। इसके परिणामस्वरूप दैनिक प्रति व्यक्ति खाद्यन्न उपलब्धता जो 1991 में 510 ग्राम थी, 2005 में घटकर 422 ग्राम रह गई। ग्रामीण विकास के अभाव और गरीबी उन्मूलन की उपेक्षा से कुपोषण लगातार बढ़ता गया। नई नीति के लागू होने के दस साल बीतने पर कृषि आधारित परिवारों की संख्या 26 फीसदी से बढ़कर 48.6 फीसदी हो गई। संपत्ति पर कर्ज का अनुपात 1.6 से बढ़कर 2.4 हो गया। यह ट्रेंड लगातार जारी रहा, कर्ज के तले दबे किसानों की संख्या बढ़ी और वे आत्महत्या करने लगे।
आर्थिक स्पेक्ट्रम के दूसरे छोर पर, भारत में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही थी। चीन की मैगजीन हुरून के मुताबिक 2004 से 2015 के बीच अरबपतियों की संख्या 13 से बढ़कर 111 हो गई। वहीं करोड़पतियों की संख्या 250,000 हो गई। पिछले 25 साल में ग्लोबलाइजेशन का निचोड़ यह है कि जीडीपी ग्रोथ बढ़ाने की कीमत हमें बढ़ी हुई असमानता के तौर पर चुकानी पड़ी है।
Source: Quartz