Highlights
- भारतीय सड़कों पर फेल होने वाली कंपनियों में 100 साल पुरानी फोर्ड और जनरल मोटर्स भी शामिल
- भारत में जनरल मोटर्स हार्ले फोर्ड यूएम जैसी अमेरिकी ऑटो कंपनियां फेल हो रही है
- कंपनियों के फेल होने का सबसे बड़ा कारण भारतीय बाजार की नब्ज को नहीं समझना
दसवीं कक्षा में आपने चाल्स डार्विन का 'सर्वायवल आफ द फिटेस्ट' का सिद्धांत शायद पढ़ा होगा। यह सिद्धांत कहता है कि जिसमें प्रतिरोध सहने की क्षमता होगी, जो फिट होगा, वही अपना अस्तित्व बचाने में भी सक्षम होगा।
डार्विन का यह सिद्धांत दुनिया के चौथे सबसे बड़ा कार बाजार भारत पर एक दम सटीक बैठता है। बीते आधे दशक के भीतर दुनिया की कई दिग्गज कंपनियां भारत में कारोबार समेट कर वापस चली गई हैं। भारतीय सड़कों पर फेल होने वाली कंपनियों में 100 साल पुरानी फोर्ड और जनरल मोटर्स भी शामिल हैं, तो 1903 में स्थापित हुई दिग्गज अमेरिकी मोटर साइकिल कंपनी हार्ले डेविडसन भी भारतीय सड़कों पर ऐसी फिसली कि देश से बाहर ही निकल गई। फेल होने वाली कंपनियों में अमेरिका की क्वींसलैंड मोटरसाइकिल और यूनाइटेड मोटर्स जैसी दिग्गज मोटरसाइकिल कंपनियां भी शामिल हैं।
5 साल में भारत को टाटा कह गईं ये ऑटो कंपनियां
कंपनी | देश | बाहर निकलने का साल |
जनरल मोटर्स | अमेरिका | 2017 |
सॉन्ग यॉन्ग | साउथ कोरिया | 2018 |
फिएट | इटली | 2019 |
यूनाइटेड मोटर्स | अमेरिका | 2019 |
हार्ले डेविडसन | अमेरिका | 2020 |
फोर्ड | अमेरिका | 2021 |
डैटसन | जापान | 2022 |
भारत से निकलने में सबसे ज्यादा अमेरिकी कंपनियां
अमेरिका कार निर्माण के मामले में दुनिया का सबसे अग्रणी देश है, वहीं भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कार मार्केट है। किसी भी कारोबार की सफलता के लिए इससे बेजोड़ फॉर्मूला नहीं मिल सकता। लेकिन भारत में यह फॉर्मूला फिस्स साबित हुआ। भारत में लगातार अमेरिकी ऑटो कंपनियां फेल हो रही है। सबसे पहले जनरल मोटर्स ने साल 2017 में भारत से अपना कारोबार समेटा, उसके बाद 2019 में यूएम मोटरसाइकिल, 2020 में हार्ले डेविडसन, 2021 में फोर्ड भारत को गुडबाय बोल गई।
क्यों फेल हो जाती हैं दिग्गज कंपनियां
बाजार की नब्ज को न समझना
भारत में कंपनियों के फेल होने का सबसे बड़ा कारण भारतीय बाजार की नब्ज को नहीं समझना है। भारत में पहला फैक्टर कार की कीमत और दूसरा आफ्टर सेल्स सर्विस है। आपकी यही सर्विस नेटवर्क पुरानी कारों को भी अच्छा मूल्य दिलाता है। लेकिन फॉक्सवैगन से लेकर फोर्ड और जनरल मोटर्स शायद इस मिजाज को समझ ही नहीं पाईं। 90 के दशक में भारत में एंट्री लेने वाली फोर्ड कभी भी अपनी छाप छोड़ ही नहीं पाई। जबकि इसके बाद भारत आई हुंडई ने अपने मजबूत और सस्ते उत्पादों के बल पर देश के बाजार में आसानी से कब्जा कर लिया।
छोटी कारों पर शुरू में फोकस नहीं
भारतीय बाजार शुरूआत से ही छोटी कारों का रहा है। लेकिन अमेरिकी कंपनियों ने उसे अमेरिकी बाजार के नजरिए से देखा और छोटी कारों को लेकर शुरूआत में फोकस नहीं किया। जिसकी वजह से बिक्री में पिछड़ गई और दूसरी कंपनियों ने बाजार पर कब्जा कर लिया।
माइलेज पर फोकस नहीं
भारत में एक मर्सडीज खरीदने वाला ग्राहक भी माइलेज को लेकर संवेदनशील होता है। ऐसे में अगर कोई कंपनी भारतीय बाजार में अपने प्रोडक्ट लांच करते वक्त माइलेज की अनदेखी करेगी, तो निश्चित तौर पर उसे नुकसान उठाना पड़ेगा। जिसका भी खामियाजा इन कंपनियों को उठना पड़ा है।
स्थानीय डिजाइन पर फोकस नहीं
कंपनियों के फेल होने का एक प्रमुख कारण भारत की जरूरत के अनुसार कार को न ढाल पाना भी रहा। आप जनरल मोटर्स की शेवरले ब्रांड की कारों को ही लें, इसमें राइड हैंड साइड ड्राइव के लिए सिर्फ स्टेयरिंग को ही दाहिनी ओर किया गया। फ्यूल टैंक हो या बोनट हुक, कंपनियों ने कभी भी भारत के अनुसार प्रोडक्ट बदलने की कोशिश ही नहीं की।
कलपुर्जों के आयात पर निर्भरता
ज्यादातर अमेरिकी कंपनियों ने स्थानीय स्तर पर निर्माण करने पर जोर नहीं दिया। जिसकी वजह से उनके प्रोडक्ट हमेशा महंगे रहे। करीब 89-90 फीसदी पार्ट्स आयात किए जाते रहे। ऐसे में कीमत को लेकर बेहद संवेदनशील भारतीय कार बाजार में वह दूसरी कंपनियों से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाई।