Highlights
- जानकारों के अनुसार, शिवसेना की विचारधारा कमजोर पड़ गई है
- ठाकरे को उनकी कट्टर हिंदुत्व की पहचान फिर से पाने में मुश्किलें आएंगी
- ठाकरे के सामने पार्टी में नई जान फूंकना, कार्यकर्ताओं में विश्वास पैदा करना चुनौती
Uddhav Thackeray: महाराष्ट्र में शिवसेना में बगावत से न केवल 31 महीने पुरानी महा विकास आघाड़ी (MVA) सरकार गिर गई और उद्धव ठाकरे को सत्ता छोड़नी पड़ गई, बल्कि शिवसेना पर उनके प्रभाव और उनके नेतृत्व वाले राजनीतिक दल के अस्तित्व को लेकर भी सवाल खड़े हो गए हैं। शिवसेना पर आरोप लग रहे हैं कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) और कांग्रेस से गठबंधन करके उसने अपनी कट्टर हिंदुत्व की विचारधारा को छोड़ दिया था। ठाकरे ने बुधवार रात को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और सप्ताह भर से चल रहा नाटकीय घटनाक्रम पटाक्षेप की ओर है जिसमें राज्य सरकार के वरिष्ठ मंत्री एकनाथ शिंदे ने पार्टी के खिलाफ विद्रोह की आवाज उठाई थी और बड़ी संख्या में विधायक उनके खेमे में चले गए थे।
बागी विधायकों का कहना है कि उन्हें ठाकरे की मुखालफत के लिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि वे महा विकास आघाड़ी के सहयोगी दलों से संबंध तोड़ने की उनकी मांग पर ध्यान नहीं दे रहे थे, जबकि उन्हें बार-बार बताया जा रहा था कि ये दल शिवसेना को समाप्त करने की कोशिश कर रहे हैं। असंतुष्ट खेमे के विधायकों का यह भी कहना रहा कि NCP और कांग्रेस से गठजोड़ के बाद बाल ठाकरे द्वारा स्थापित शिवसेना हिंदुत्व के रास्ते से हट रही है। शिंदे ने बगावत का झंडा बुलंद करने के बाद यह तक कह दिया कि उनकी पार्टी असली शिवसेना है और वह हिंदुत्व की रक्षा करना चाहती है।
ठाकरे के सामने ये हैं चुनौतियां-
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार अब ठाकरे के सामने कई चुनौतियां हैं। इनमें पार्टी पर नियंत्रण कायम रखने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ना और बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत को बचाना, पार्टी में नई जान फूंकना और कार्यकर्ताओं में विश्वास पैदा करना आदि हैं। जानकारों के अनुसार, ‘‘शिवसेना की विचारधारा कमजोर पड़ गई है और ठाकरे को उनकी कट्टर हिंदुत्व की पहचान फिर से पाने में मुश्किलें आएंगी। अगर वह अभी इस ओर ध्यान नहीं देते तो एकनाथ शिंदे के ये आरोप सच साबित हो जाएंगे कि ठाकरे ने हिंदुत्व के रास्ते को छोड़ दिया है।’’
उन्होंने कहा, ‘‘ठाकरे ने कल औरंगाबाद का नाम संभाजीनगर करके इस दिशा में थोड़ा प्रयास जरूर किया।’’ राजनीतिक पंडितों की मानें तो ठाकरे के लिए नरम हिंदुत्व की बात करना कारगर नहीं होगा। उनका यह भी कहना है कि अगर शिंदे निर्वाचन आयोग में जाते हैं तो शिवसेना के चुनाव चिह्न ‘तीर कमान’ के प्रयोग पर रोक लगाई जा सकती है। उन्होंने कहा, ‘‘उद्धव ठाकरे नीत शिवसेना आगामी स्थानीय निकाय चुनाव नए चुनाव चिह्न पर कैसे लड़ेगी जिसमें बृहन्मुंबई महानगर पालिका का महत्वपूर्ण चुनाव भी है।’’ हालांकि ठाकरे के करीबी और निष्ठावान लोगों को लगता है कि बागी खेमा पार्टी और उसके चुनाव चिह्न पर दावा नहीं कर सकता क्योंकि मूल राजनीतिक दल अभी अस्तित्व में है।
'ठाकरे को मुंबई से अपना मोह छोड़ देना चाहिए'
उन्हें यह भी लगता है कि ठाकरे को मुंबई से अपना ‘मोह’ छोड़ देना चाहिए और यदि वह पार्टी के आधार को मजबूत करना चाहते हैं तो उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों में पैठ बढ़ानी चाहिए। जानकार यह भी कहते हैं कि ठाकरे का उनके निजी सचिव मिलिंद नरवेकर और शिवसेना के नेताओं अनिल परब तथा अनिल देसाई समेत कुछ लोगों पर अत्यधिक भरोसा करना भी कुछ वरिष्ठ पार्टी नेताओं को रास नहीं आया है। कुछ विश्लेषकों ने कहा कि ठाकरे का विधान परिषद से भी इस्तीफा उचित कदम नहीं है। उन्होंने कहा, ‘‘उन्हें भाजपा से संघर्ष के लिए विधान परिषद के मंच का इस्तेमाल करना चाहिए था और शिंदे खेमे की सच्चाई सामने लानी चाहिए थी।’’