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‘माफ करो महाराज’ से लेकर ‘साथ है शिवराज’ तक, मध्य प्रदेश में ऐसे बदलती गई नारों की सियासी यात्रा

मध्य प्रदेश में 17 नवंबर को चुनाव होने हैं और राज्य में इस वक्त हाई वोलटेज सियासत हो रही है। लेकिन पूरे चुनावी कैंपेन में इस बार राजनैतिक दलों की ओर से कोई भी ऐसा चुनावी नारा नहीं आया जो जनमानस पर अपना असर छोड़ रहा हो।

Edited By: Swayam Prakash @swayamniranjan_
Published : Nov 11, 2023 13:04 IST, Updated : Nov 11, 2023 13:04 IST
madhya pradesh elections
Image Source : FILE PHOTO मध्य प्रदेश की सियासी दीवारों से गायब हो रहे चुनावी नारे

‘माफ करो महाराज’ से ‘साथ है शिवराज’ तक का अंतर्विरोधों से भरा सियासी नारों का सफर पूरा करने वाले मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राजनितिक दलों का प्रचार अभियान चरम पर है, लेकिन इस बार कोई नारा जनमानस पर अपना असर छोड़ता नजर नहीं दिख रहा। विश्लेषक इसे प्रचार के पारम्परिक तरीकों से लेकर सोशल मीडिया के तेजी से बदलते युग के एक पड़ाव के रूप में देख रहे हैं। पिछले चुनावों से पहले लम्बे समय से सत्ता में रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सियासी गणित कुछ अलग थे और 2018 विधानसभा चुनाव में ‘माफ करो महाराज, हमारा नेता शिवराज’ सत्तारूढ़ पार्टी का एक मुख्य नारा था। इस नारे के जरिए ग्वालियर के पूर्व राजघराने के वंशज ज्योतिरादित्य सिंधिया पर निशाना साधा गया था। 

"स्वागत है महाराज, साथ है शिवराज"

दरअसल, ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक उन्हें ‘महाराज’ कहकर संबोधित करते हैं। इसके दो साल बाद 2020 में राज्य में उस समय सियासी स्थितियां बदली, जब सिंधिया कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए और कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को पंद्रह महीने के अल्प-समय में सत्ता से दूर होना पड़ा। इसी के साथ भाजपा का सियासी नारा भी बदल गया। सिंधिया जब मार्च 11, 2020 को भाजपा में शामिल हुए, तब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ‘एक्स’ (तत्कालीन ट्विटर) पर लिखा था, "स्वागत है महाराज, साथ है शिवराज" और इसके साथ ही चौहान चौथी बार सत्तारूढ़ होकर भोपाल में देश की सबसे पुरानी मानव-निर्मित झील के किनारे बसे श्यामला हिल्स स्थित मुख्यमंत्री आवास में फिर से पहुंच गए। 

दिग्विजय सिंह के लिए नारा था- ‘श्रीमान बंटाधार’

भाजपा ने कांग्रेस के नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह पर निशाना साधते हुए 2003 में ‘श्रीमान बंटाधार’ का नारा दिया था। भाजपा के थिंक-टैंक ने 2003 में राज्य की बेहद खराब सड़कों और खराब बिजली आपूर्ति को उजागर करने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री सिंह को निशाना बनाते हुए यह नारा दिया था। भाजपा की मध्य प्रदेश इकाई के सचिव रजनीश अग्रवाल ने कहा कि 2003 में पूरे प्रदेश में सड़कों के नाम पर सिर्फ गड्ढे थे, बिजली आपूर्ति बेहद अनियमित थी और दिग्विजय सिंह दावा करते थे कि चुनाव विकास से नहीं बल्कि प्रबंधन से जीते जाते हैं। अग्रवाल ने कहा, ‘‘दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में जनता को हर मोर्चे पर परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था और उनके लिए ‘श्रीमान बंटाधार’ के नाम का उपयोग एक उपयुक्त अभिव्यक्ति थी।’’ 

दीवारों से नारे ओझल, सोशल मीडिया पर प्रचार

भाजपा नेता ने कहा कि प्रचार अब नारों के बजाय सोशल मीडिया के जरिए किया जाता है। उन्होंने कहा कि पारम्परिक सियासी प्रचार अब भी मौजूद है लेकिन दीवारों पर नारे लिखने के बजाय अब सोशल मीडिया के जरिए प्रचार होती है। अग्रवाल के अनुसार, 2003 में हुए प्रचार का नतीजा यह हुआ कि तत्कालीन सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस की सीटें 230 सदस्यीय सदन में घटकर 38 रह गईं और उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा 173 सीटों के साथ विजयी हुई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह जैसे भाजपा के दिग्गज इसके दो दशक बाद भी 2023 में दिग्विजय सिंह के कार्यकाल (1993-2003) के दौरान राज्य की स्थिति का उल्लेख करने के लिए ‘श्रीमान बंटाधार’ का उपयोग कर रहे हैं। 

congress rally

Image Source : PTI
रैलियों से निकलकर सोशल मीडिया पर शिफ्ट हो रहा प्रचार

"शिवराज का मिशन, 50 प्रतिशत कमीशन"

इस चुनाव में भाजपा के नेता कांग्रेस की मध्य प्रदेश इकाई के प्रमुख कमलनाथ के लिए ‘करप्टनाथ’ शब्द इस्तेमाल कर रहे हैं, जबकि कांग्रेस राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी पर बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए ‘शिवराज का मिशन, 50 प्रतिशत कमीशन’ के साथ पलटवार कर रही है। कांग्रेस और भी कई नारे लेकर आई है, जैसे ‘बढ़ाइए हाथ, फिर कमलनाथ’, ‘भाजपा हटाओ, सम्मान बचाओ’ और ‘50प्रतिशत कमीशन की सरकार, इसलिए युवा बेरोजगार’। प्रधानमंत्री मोदी भी अपनी रैलियों में कांग्रेस पर आरोप लगाते हुए कह रहे हैं ‘ग़रीब की जेब साफ़ और काम हाफ’। 

"एमपी के मन में मोदी, मोदी के मन में एमपी"

बहरहाल, राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इस चुनाव में कोई भी नारा पिछली बार के ‘माफ़ करो महाराज, हमारा नेता शिवराज’ जितना लोकप्रिय नहीं हुआ। इस बार भाजपा ने मध्यप्रदेश के चुनावों के लिए मुख्यमंत्री पद के लिए अपना कोई चेहरा घोषित नहीं किया है। उसने इस बार नारा दिया है- ‘एमपी के मन में मोदी, मोदी के मन में एमपी’। चुनावी रैलियों में इस नारे का आधा हिस्सा पीएम खुद बोलते हैं, जबकि आधा हिस्सा जबाब में श्रोता बोलते है। 

"शिवराज, महाराज और नाराज"

वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई कहते हैं कि आकर्षक नारे प्रचारकों को प्रमुख बिंदुओं को सहजता से समझाने में मदद करते हैं। किदवई ने कहा, "लेकिन नारों के उलटे परिणामों का भी इतिहास रहा है। 'माफ करो महाराज' का इस्तेमाल 2018 में ज्योतिरादित्य सिंधिया के खिलाफ प्रभावी ढंग से किया गया था, लेकिन 2023 में सिंधिया के लिए उपयोग हुआ ‘महाराज’ शब्द एक और नारे के साथ वापस आ गया है। विरोधी दल भाजपा को अब तीन गुट - 'शिवराज, महाराज और नाराज’ वाली पार्टी बता रहे हैं।" 

कैस चुनावों से विलुप्त होने लगे नारे?

मध्य प्रदेश में कांग्रेस मीडिया विभाग के अध्यक्ष के के मिश्रा कहते हैं कि राज्य में ‘‘फर्जी जुमलों’’ के साथ भाजपा के ‘‘महंगे" विज्ञापन अभियान ने नारों की विश्वसनीयता खत्म कर दी है। मिश्रा ने कहा कि भाजपा के कारण मध्य प्रदेश में पिछले 20 वर्ष में नारे अपनी प्रासंगिकता और प्रमाणिकता खो चुके हैं, जबकि ‘‘हमारा एकमात्र नारा है- ‘भ्रष्टाचार के खिलाफ, वक्त है बदलाव का’। वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक गिरजा शंकर ने नारों के बदलते परिदृश्य के लिए व्यवसायीकरण को जिम्मेदार ठहराया। गिरजा शंकर के अनुसार, पहले राजनितिक दल इन नारों के लिए बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों से संवाद करते थे, लेकिन अब यह संवाद ख़त्म हो गया और इसका इसका स्थान अब ‘कंसलटेंट’ (परामर्श देने वाली) कंपनियों ने ले लिया है। 

बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों से संवाद खत्म होने के दुष्परिणाम

कांग्रेस मीडिया विभाग के अध्यक्ष ने कहा कि साहित्यिक रुचि वाले लोगों द्वारा लिखे जाने के कारण राजनीतिक नारों में भावनात्मक पुट होता था और वे जनता को आकर्षित करते थे, लेकिन अब स्थितियां बदल गई हैं। गिरजा शंकर ने कहा कि पुराने वक़्त में राजनीतिक नारे लगते थे- ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ या ‘जात पर न बात पर, मोहर लगेगी हाथ पर, इंदिरा जी की बात पर’ लेकिन अब इन नारों का स्वरुप बदल गया है। उन्होंने कहा कि राजनितिक दलों का बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों से संवाद खत्म करने का परिणाम यह भी हुआ है कि सदनों के अंदर और बाहर भी भाषा और भाषणों की मर्यादा समाप्त हो गई है।

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