गूलर अत्यंत दुर्लभ माना जाता है। इसकी लकड़ी मजबूत नहीं होती। इसके फल गुच्छों के रूप में तने पर होते हैं। इसके पीछे एक किंवदंती है कि गांधारी को शादी में एक ऋषि के अपमान के फलस्वरूप शाप मिला था। शाप से मुक्ति के लिए गांधारी को पहले गूलर की लकड़ी का मगरोहन बनाकर पहले मंडप का फेरा लगाने को कहा गया था। संभवत: तभी से इसका प्रचलन हुआ।
वहीं ग्रामीण अंचल के रहने वाले गोपी, अजय और मोहन जैसे दर्जनों लोगों ने भी इसकी उपयोगिता को छत्तीसगढ़ में विशेष तौर पर माना है। इन लोगों का कहना है कि इसके फलों के अंदर तोड़ते ही छोटे-छोटे बारीक कीड़े निकलते हैं। इस पेड़ की पहचान काफी कठिन होता है।
पंडित संजय महाराज का कहना है कि यह पेड़ दुर्लभ तो है ही साथ ही हवन-पूजन में इसकी लकड़ियों का इस्तेमाल होता है। उन्होंने कहा कि हवन में 9 प्रकार की लकड़ियों का इस्तेमाल किया जाता है, उसमें एक डूमर भी शामिल होता है। लकड़ी तोड़ने से पहले इसकी पूजा-अर्चना की जाती है। उसके बाद इसकी लकड़ी का छोटा टुकड़ा लाकर मंडप पर लगाया जाता है। उसके बाद ही शादी की रस्में पूरी होती है।
पंडित करण महाराज ने गूलर की महत्ता की प्रतिपादित करते हुए कहा कि यह पेड़ अत्यंत शुभ माना गया है। लेकिन आज लोग अपनी सुविधाओं के हिसाब से विवाह संपन्न कराने लग गए हैं।
चिकित्सा की दृष्टि से गूलर की छाल, पत्ते, जड़, कच्चाफल व पक्का फल सभी को उपयोगी माना गया है। पका फल मीठा, शीतल, रुचिकारक, पित्तशामक, तृष्णाशामक, पौष्टिक व कब्जनाशक होता है। खूनी बवासीर में इसके पत्तों का रस लाभकारी होता है। हाथ-पैर की चमड़ी फटने से होने होने वाली पीड़ा कम करने के लिए गूलर के दूध का लेप करना लाभकारी सिद्ध हुआ है।
मुंह में छाले, मसूढ़ों से खून आना आदि विकारों में इसकी छाल या पत्तों का काढ़ा बनाकर कुल्ला करने से विशेष लाभ होता है। ग्रीष्म ऋतु की गर्मी या अन्य जलन पैदा करने वाले विकारों एवं चेचक आदि में गूलर के पके फल को पीसकर उसमें शक्कर मिलाकर उसका शर्बत बनाकर पीने से राहत मिलती है।