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जानें क्यों इस्लाम में अज़ान और नमाज़ है ज़रुरी

हम दिन में कम से कम पांच बार अज़ान की आवाज़ सुनते हैं लेकिन अधिकतर ग़ैर मुसलमानों को इस अज़ान के बारे में कुछ ख़ास नहीं मालूम होता। वे बस इतना जानते हैं कि इसका

India TV Lifestyle Desk
Published on: January 25, 2016 15:53 IST
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हम दिन में कम से कम पांच बार अज़ान की आवाज़ सुनते हैं लेकिन अधिकतर ग़ैर मुसलमानों को इस अज़ान के बारे में कुछ ख़ास नहीं मालूम होता। वे बस इतना जानते हैं कि इसका संबंध नमाज़ है। दरअसल इस्लाम में एक मुसलमान के लिए नमाज़ का महत्व इतना अधिक है कि वह सब कुछ छोड़ सकता है लेकिन नमाज़ नहीं। वह सदैव नमाज़ से जुड़ा रहे और कभी भूल से भी इसे न छोड़े इसके लिए ‘अज़ान’ के रूप में एक शक्तिशाली प्रणाली शुरु की गई थी जिसे  नमाज़ से जोड़ दिया।

अज़ान असल में नमाज़ का समय होने की घोषणा है। अज़ान का हिन्दी अनुवाद है—अल्लाह सबसे महान है।

‘अज़ान’ एक प्रकार से यह भी घोषणा है कि जो भी ईश्वर को सबसे महान मानता है उसे अपना सब काम छोड़कर नमाज़ के लिए मस्जिद में आ जाना चाहिए क्योंकि यही उसकी सफलता एवं मुक्ति का एकमात्र रास्ता है।

अज़ान से क्यों आवाज़ दूर पहुंचाई जाती है?

‘अज़ान’ चूंकि नमाज़ की घोषणा का एक साधन है इसलिये यह ज़रुरी है कि उसकी आवाज़ दूर-दूर तक पहुंचे जिससे की कोई भी व्यक्ति इससे वंचित न रह जाए। यही कारण है कि आजकल अज़ान लाउडस्पीकार के माध्यम से दी जाती है।

वुज़ू

नमाज़ में शामिल होने से पहले हर मुसलमान को ‘वुज़ू’ करना होता है जिसमें वह अपने शरीर के कुछ अंगों को धोकर साफ़ करता है। ‘वुज़ू’ के बिना नमाज़ नहीं हो सकती। ‘वुज़ू’ एक मुसलमान को शारीरिक एवं मानसिक रूप से ईश्वर के समक्ष उपस्थित होने के लिए तैयार करता है।

नमाज़

मनुष्य सदैव से ईश्वर की कृपा और अनुकंपा पाने के लिये उपासना और आराधना करता आ रहा है। इस अभिव्यक्ति के विभिन्न रूप समाज में प्रचलित रहे हैं और उनमें समय के साथ-साथ परिवर्तन भी होता रहा है। कोई ईश्वर की काल्पनिक प्रतिमा को सामने रखकर उसकी उपासना करता है तो कोई उसे निराकार मानकर पूजता है। किसी की उपासना की पद्धति गाने-बजाने पर आधारित है, तो कोई एकांत में शांति से चिंतन-मनन करने को प्राथमिकता देता है। पद्धति कोई भी हो, उद्देश्य सबका एक ही होता है—ईश्वर की कृपा की प्राप्ति।

नमाज़ में हर मुसलमान को ‘किबला’ की ओर मुंह करके खड़े होना पड़ता है। ‘किबला’ उस दिशा को कहते हैं जिधर ‘काबा’ है। ‘काबा’ मक्का शहर (सऊदी अरब) में स्थित है, और मुसलमान किसी भी देश में हों, उसी दिशा की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ते हैं।

नमाज़ ईश्वर से सीधा संपर्क स्थापित कराती है

इस्लाम में नमाज़ ईश्वर से सीधा संपर्क एवं संवाद करने का एक माध्यम है। यही कारण है कि एक ईश्वर में अपनी आस्था ऱखने वाले मुसलमान के लिए नमाज़ पढ़ना सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। नमाज़ वास्तव में इसी संपर्क को स्थापित करने का एक ऐसा शक्तिशाली माध्यम है जिसमें किसी की मध्यस्थता की कोई आवश्यकता नहीं होती और वह भी एक बार नहीं, बल्कि दिन में पांच बार।

नमाज़ का समय

एक मुसलमान के लिए नमाज़ प्रतिदिन पांच बार ज़रुरी है। प्रातः सूर्योदय से पहले, दोपहर, शाम, सूर्यास्त के बाद और रात को सोने से पहले।

नमाज़ एक सामूहिक उपासना है

मुसलमानों के लिए अनिवार्य है कि वह पांचों समय की नमाज़ सामूहिक रूप से मस्जिद में अदा करें। किसी कारणवश अगर कोई मस्जिद नहीं पहुंच पाता तो उसे अकेले नमाज़ अदा करने की अनुमति है। ‘मस्जिद’ वह स्थान है जहां सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ने के लिए लोग एकत्रित होते हैं। सामूहिक नमाज़ जिस व्यक्ति की अगुवाई में पढ़ी जाती है उसे ‘इमाम’ कहते हैं। इस्लाम में किसी पुरोहित वर्ग की आवश्यकता नहीं है। नमाज़ की अगुवाई नमाज़ पढ़ने वालों में से कोई भी व्यक्ति कर सकता है।

नमाज़ हर भेदभाव को समाप्त करती है

ईश्वर ने किसी मनुष्य को न ऊंचा पैदा किया है, न नीचा। उसकी दृष्टि में सब बराबर हैं। परन्तु प्राचीनकाल से ही कुछ लोग अपने आपको ऊंचा और दूसरों को नीचा समझकर उनके साथ भेदभाव का व्यवहार करते हैं और उनका शोषण और उत्पीड़न करते हैं। इस्लाम ऐसे सभी वर्गीकरण को अस्वीकार करता है और इन्सान के रूप में सभी को भाई-भाई मानता है। नमाज़ इस समानता, बराबरी और भाईचारे का जीवंत उदाहरण है। न ही किसी वर्ग-विशेष को मस्जिद में आने से रोका जा सकता है, और न ही किसी को ऐसी विशेष सुविधा प्राप्त है, जो दूसरों को प्राप्त न हो। सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ते समय सभी को पंक्ति बनाकर खड़ा होना पड़ता है। जो व्यक्ति पहले मस्जिद में प्रवेश करता है वह आगे की पंक्ति में स्थान पाता है। मस्जिद में किसी वर्ग-विशेष के लिए पंक्ति सुरक्षित एवं नियत नहीं की जा सकती। नमाज़ में सभी को आपस में कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होना पड़ता है, जिससे छूत-अछूत की सभी सीमाएं टूट जाती हैं। मालिक हो या नौकर, अमीर हो या ग़रीब सभी कंधे से कंधा मिलाकर एक साथ उस एक ईश्वर के समक्ष अपने आपको झुका देते हैं जिसकी प्रभुसत्ता सभी पर छाई है।

नमाज़ एकता की भावना पैदा करती है

मुसलमान चाहे किसी भी देश के निवासी हों, उनका नमाज़ पढ़ने का तरीक़ा एक जैसा होता है। एक ही क़ुरआन है जिसके श्लोकों को नमाज़ में पढ़ते हैं, एक ही भाषा (अरबी) है जिसमें नमाज़ पढ़ी जाती है। सभी एक साथ ही ईश्वर के सामने झुकते हैं और एक साथ सजदा करते हैं। एक साथ ही उठते हैं और एक साथ बैठते हैं। इस प्रकार उनमें एकता और सामूहिकता की भावना पैदा होती है।

नमाज़ बुराइयों से रोकती है

नमाज़ बुराइयों से रोकने का एक उत्कृष्ट आधार है। अगर बुराइयों से रुकने का एकमात्र उद्देश्य ईश्वर की आज्ञापालन और उसकी प्रसन्नता प्राप्त करना है, तो नमाज़ प्रतिदिन पांच बार ईश्वर की याद दिलाकर बुराइयों से रुकने की प्रेरणा देती है।

नमाज़ कैसे पढ़ी जाती है?

नमाज़ पढ़ने की प्रक्रिया बहुत ही सरल और सादा है। नमाज़ की पूरी प्रक्रिया को मुख्यतः चार अंशों में विभाजित किया जा सकता है—

1. ईश्वर के समक्ष आदर से खड़े होना: इस स्थिति में क़ुरआन के कुछ अंशों को पढ़ा जाता है, जिससे की ईश्वर का गुणगान भी होता है और उसके आदेश और सन्देश से हमारा संबंध टूटने नहीं पाता और प्रतिदिन कम से कम पांच बार उसका स्मरण होता रहता है।

2. ईश्वर के समक्ष श्रद्धा से झुक जाना: उसकी महानता, अनुकम्पा और प्रभुसत्ता को स्वीकार करते हुए अपने पूरे अस्तित्व को उसके सामने झुका देना ही मनुष्य की वास्तविकता है। इसी अभिव्यक्ति के लिए नमाज़ में शरीर को ईश्वर के समक्ष झुका दिया जाता है। इस स्थिति को ‘रुकू’ कहते हैं।

3. ईश्वर के समक्ष सजदा करना: उसके समक्ष अपने अस्तित्व को पूर्ण रूप से समर्पित करते हुए अपने शीर्ष को उसके सामने ज़मीन पर लगा देना (सजदा करना) इस बात की अभिव्यक्ति है कि हम उसके सामने नत-मस्तक करते हैं और उसकी हर आज्ञा को स्वीकार करने को तैयार हैं।

4. ईश्वर के समक्ष आदर से बैठना: उसके समक्ष आदर से बैठकर उसकी महानता और उसके गुणों का वर्णन किया जाता है और अपने पापों की क्षमा-याचना की जाती है।

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