इस प्रकार ब्रह्माजी ने इन्द्र को आस्वस्त किया और उन्हें लेकर भगवान विष्णु के पास गए और उनसे समाधान मांगा तो वह बोले कि मैं स्वयं महालक्ष्मी के जाने से शक्तिहीन हो गया हूं जिसके कारण मै आप लोगों की कोई सहायता न कर सकता है। बार-बार देवताओं के आग्रह करने पर विष्णु बोले कि महालक्ष्मी राक्षसों के पास जानें से वह शक्तिशाली बन गए है जिसके कारण वह ऐसे तो मानेगे नही।
इसलिए हमें ऐसा कोई काम करना होगा। जिसमें हमारी सहायता राक्षस भी करें। इसके बाद वह बोले कि हम समुद्र मंथन करके अमृत की प्राप्ति करते है । जिसको पी कर हम लोक अमर हो जाएगें और राक्षसों को आसानी से हरा सकते है। सभी को यह युक्ति अच्छी लगी।
तब देवताओं ने राक्षसों को अमृत का लालच देते हुए अपना एक दूत इंद्र ने पाताललोक में दैत्यराज बलि के पास भेजा। दूत की बात सुनकर राश्रसों को लगा कि यह महालक्ष्मी को पानें की साजिश की जा रही है, लेकिन अमृत के लालच के आगे उन्होनें हां कह दिया। इसके बाद जब देवताओं तथा असुरों ने समुद्र मंथन आरंभ किया, तब भगवान विष्णु ने कच्छप बनकर मंथन में भाग लिया। वे समुद्र के बीचोबीच में वे स्थिर रहे और उनके ऊपर रखा गया मदरांचल पर्वत। फिर वासुकी नाग को रस्सी बानाकर एक ओर से देवता और दूसरी ओर से दैत्यों ने समुद्र का मंथन करना शुरू कर दिया।
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