वह जानते थे कि वह इतने शक्तिशाली नही कि देवलाओं से लड़ सकें। दूसरी तरफ देवताओं के पास महालक्ष्मी अपनी कृपा बरसा रही थी। मां लक्ष्मी अपने आठों रूपों के साथ इंद्रलोक में बसी हुई थी। जिसके कारण देवता अंहकार से भरे हुए थे। वह अपने आगे किसी को कुछ नही समझते थे।
एक दिन दुर्वासा ऋषि अपने किसी काम के कारण उन्हें समामन की माला मिली थी। उसे पहने हुए वह स्वर्ग की ओर जा रहे थे। वे मदमस्त होकर अपने इष्ट का स्मरण करते हुए चले जा रहें थे कि उन्हे सामने से भगवान इंद्र अपने ऐरावत हाथी में आते हुए दिखाई दिए। देवराज इंद्र को देखकर ऋषि प्रसन्न हो गए और अपने गले कि माला उतार कर इंद्र के गलें में डालने कि लिए उछाली, लेकिन इंद्र अपने मय में मस्त थे जिसके कारण उन्होनें ऋषि से प्रणाम तो किया लेकिन माला नही संभाल पाएं और उसे ऐरावत के सिर में डाल दी।
जैसे ही ऐरावत को अपने सिर में कुछ होने का अनुभव हुआ उसनें तुरंत अपना सिर हिलाकर माला जमीन में गिरा दी और उसे पैरों से कुचल दिया। जब ऋषि ने यह देखा तो वह क्रोधित हो गए, क्योकि उन्हें इससे अपमान का अनुभव हुआ। जिसके कारण उन्होने इंद्र से तेज आवाज में कहा कि हे इंद्र तुम्हे जिस बात का इतना अंहकार है। वह तेरे पास से तुरंत पाताललोक चली जाएगी।
दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण लक्ष्मी उसी समय स्वर्गलोक को छोड़कर पाताल चली गई। लक्ष्मी के चले जाने से इंद्र सहित सभी देवता निर्बल और श्रीहीन हो गए। उनका वैभव लुप्त हो गया। जब पाताल लोक में रहने वालें राक्षसों ने देखा कि माता लक्ष्मी उनका ओर आ रही है तो वह बहुत प्रसन्न हुए जिसके कारण कह बलशाली बन गए गए और देवताओं को हरा कर इंद्रलोक को पाने के बारें में सोचने लगे। तब इन्द्र देवगुरु बृहस्पति और अन्य देवताओं के साथ ब्रह्माजी की सभा में उपस्थित हुए।
तब ब्रह्माजी बोले कि हे इंद्र! भगवान विष्णु के भोगरूपी पुष्प का अपमान करने के कारण रुष्ट होकर भगवती लक्ष्मी तुम्हारे पास से चली गयी हैं। उन्हें दुबारा प्रसन्न करने के लिए तुम भगवान नारायण की कृपा-दृष्टि प्राप्त करो। उनके आशीर्वाद से तुम्हें खोया हुआ वैभव दुबारा मिल जाएगा।
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