हिंदू पंचाग के अनुसार वैशाख माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को सनातन धर्म-संस्कृति में नवप्राण फूंकने वाले आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ था। शंकराचार्य का जन्म केरल राज्य के कालड़ी में एक ब्राह्मण घर में हुआ था। इसी कारण 28 अप्रैल को शंकराचार्य जंयती मनाई जाती है। सनातम धर्म के महाग्रंथों की बात की जाए तो उनके अनुसार शंकराचार्य भगवान शिव का अवतार माने जाते हैं।
शंकराचार्य ऐसे एकलौते इंसान थे जिन्होंने 12वीं सदी पहले अपने जन्मस्थान केरल से पूरे भारत की यात्रा कर ली थी। इस यात्रा में बद्रीनाथ, केदारनाथ जैसे उच्च पर्वतीय क्षेत्र भी सम्मिलित है। इसी महायात्रा के कारण शंकराचार्य को दिग्विजय भी कहा गया।
बचपन में ही ले लिया था सारे वेदों का ज्ञान
शंकराचार्य ने मात्र 7 साल की आयु में समस्त वेदों का ज्ञान हासिल कर लिया था और 12 साल की उम्र में शास्त्र के प्रकांड पंडित बन गए। इसके साथ ही 16 साल की उम्र में शंकराचार्य ने शताधिक ग्रंथों की रचना कर डाली थी।
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संन्यासी बनने के पीछे की पौराणिक कथा
आदि गुरु शंकराचार्य के जन्म के साथ-साथ उनके संन्यास लेने की कथा भी काफी रोचक है। पिता की अकाल मृत्यु होने से ही बचपन में ही शंकर के सिर से पिता का साया दूर हो गया। वहीं माता एक एकलौते पुत्र को संन्यास लेने की अनुमति नहीं दे रही थी। ऐसे में शंकराचार्य ने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करके मां को राजी कर लिया। तब एक दिन नदी किनारे एक मगरमच्छ ने शंकराचार्य जी का पैर पकड़ लिया तब इस वक्त का फायदा उठाते शंकराचार्य जी ने अपने मां से कहा - मां मुझे संन्यास लेने की आज्ञा दे दो नहीं तो यह मगरमच्छ मुझे खा जाएगा। शंकराचार्य की इस बात को सुनकर माता भयभीत हो गई और तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान कर दी।
सनातन धर्म का संरक्षण करने के लिए आदि गुरु ने भारत के चारों कोनों में चार मठों की स्थापना की। ये पुरी मठ, श्रंगेरी, शारदा मठ और ज्योतिर्मठ हैं, जो वर्तमान में जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारिका और बद्रीनाथ में स्थित हैं। इन चार मठों की स्थापना के पश्चात सन 820 ई में आदि शंकराचार्य ने हिमालय में समाधि ले ली थी।