आज आश्विन कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि और सोमवार का दिन है। पंचमी तिथि आज रात 9 बजकर 39 मिनट तक रहेगी। आज उन लोगों का श्राद्ध कर्म किया जायेगा, जिनका स्वर्गवास किसी भी महीने के कृष्ण या शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को हुआ हो। साथ ही जिनका देहांत अविवाहित अवस्था में, यानी कि शादी से पहले ही हो गया हो । इस दिन श्राद्ध कर्म करने वालों को प्रसाद में उत्तम लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। आचार्य इंदु प्रकाश से जानिए तर्पण के महत्व की और ये किस प्रकार किया जाता है। साथ ही जानिए पिंडदान करने की विधि।
क्या है तर्पण?
श्राद्ध में तर्पण का बहुत अधिक महत्व है। तर्पण से पितर संतुष्ट और तृप्त होते हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार जिस प्रकार वर्षा का जल सीप में गिरने से मोती, कदली में गिरने से कपूर, खेत में गिरने से अन्न और धूल में गिरने से कीचड़ बन जाता है। उसी प्रकार तर्पण के जल से सूक्ष्म वाष्पकण देव योनि के पितर को अमृत, मनुष्य योनि के पितर को अन्न, पशु योनि के पितर को चारा और अन्य योनियों के पितरों को उनके अनुरूप भोजन और सन्तुष्टि प्रदान करते हैं। साथ ही जो व्यक्ति तर्पण कार्य पूर्ण करता है, उसे हर तरह का लाभ मिलता है |
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तर्पण कर्म कितने तरह के होते है?
तर्पण मुख्य रूप से छः प्रकार से किये जाते हैं, जो कि इस प्रकार हैं । देव-तर्पण.... , ऋषि तर्पण..... , दिव्य मानव तर्पण..... दिव्य पितृ-तर्पण...... यम तर्पण और मनुष्य-पितृ तर्पण ।
ऐसे करें तर्पण
श्राद्ध के दौरान तर्पण के लिये एक लोटे में साफ जल लेकर उसमें थोड़ा दूध और काले तिल मिलाकर तर्पण कार्य करना चाहिए। पितरों का तर्पण करते समय एक पात्र में जल लेकर दक्षिण दिशा में मुख करके बायां घुटना मोड़कर बैठें और अगर आप जनेऊ धारण करते हैं, तो अपने जनेऊ को बायें कंधे से उठाकर दाहिने कंधे पर रखें और हाथ के अंगूठे के सहारे से जल को धीरे-धीरे नीचे की ओर गिराएं।
इस प्रकार घुटना मोड़कर बैठने की मुद्रा को पितृ तीर्थ मुद्रा कहते हैं। इसी मुद्रा में रहकर अपने सभी पितरों को तीन-तीन अंजुलि जल देना चाहिए और ध्यान रहे तर्पण हमेशा साफ कपड़े पहनकर श्रद्धा से करना चाहिए। बिना श्रद्धा के किया गया धर्म-कर्म तामसी तथा खंडित होता है।
क्या है पिंडदान?
स्थानीय जगहों पर अपने पूर्वज़ों के श्राद्ध वाले दिन पितरों के निमित खीर, पूड़ी, सब्जी और साथ ही अपने पितर की कोई मनपसंद भोजन बनाने का विधान है और इस भोजन को गोबर से बने उपले या कंडों की कोर पर रखकर पितरों को भोग लगाया जाता है और दोनों हाथों से कोर के बायीं ओर, यानी अपनी दाहिनी तरफ पानी छोड़ा जाता है। इस क्रिया को ही स्थानीय भाषा में पिंडदान कहा जाता है।
लेकिन कुछ शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके पिंड बनाए जाते हैं और इस क्रिया को सपिण्डीकरण कहा जाता है। यहां पिण्ड का अर्थ है शरीर। श्राद्ध में पूर्वजों के निमित्त पिंड बनाकर उनसे अपने आने वाले जीवन की शुभेच्छा की प्रार्थना की जाती है। कहते हैं पिण्डदान करने वाले व्यक्ति को उसके पूर्वज़ों के आशीर्वाद से संतति, सम्पति, विद्या और हर प्रकार की सुख-समृद्धि मिलती है।
ये पिंडदान किस-किस के लिये किया जा सकता है
दरअसल हर पीढ़ी के अंदर मातृकुल और पितृकुल दोनों की पहले तीन पीढ़ियों के गुणसूत्र उपस्थित होते हैं। अतः पिंडदान के लिये जो दूध, चावल और तिल के पिण्ड बनाये जाते हैं, वो पिता, पितामह और प्रतिपितामह के शरीरों का प्रतीक हैं। इन पिंडों को बनाकर आपस में मिलाया जाता है, फिर उन्हें अलग बांटा जाता है। इससे एक बात क्लियर है कि जिन-जिन लोगों के गुणसूत्र, यानी जीन्स व्यक्ति की देह में उपस्थित हैं, उन सबकी तृप्ति के लिये ये श्राद्ध कार्य या अनुष्ठान किया जाता है।
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पिंडदान की विधि
पिण्डदान के लिये पितृतीर्थ मुद्रा में दक्षिणाभिमुख होकर, यानी दक्षिण दिशा में मुख करके, अपना बायां घुटना मोड़कर बैठना चाहिए और मंत्र के साथ पिंड किसी थाली या पत्तल में स्थापित करने चाहिए।
इस तरह सबसे पहला पिंड देवताओं के निमित निकालें...
दूसरा पिंड ऋषियों के निमित.....
तीसरा दिव्य मानवों के निमित.....
चौथा दिव्य पितरों के लिये
पांचवां पिंड यम के नाम....
छठा मनुष्य-पितरों के नाम.......
सातवां मृतात्मा के नाम............
आठवां पिंड पुत्र रहितों के नाम........
नौवां उच्छिन्न कुलवंश वालों के नाम......
दसवां पिंड गर्भपात से मर जाने वालों के नाम........
ग्यारहवां और बारहवां पिंड इस जन्म या अन्य जन्म के बन्धुओं के निमित
इस तरह से कुल बारह पिंड थाली या पत्तल में निकाले जाते हैं और उन पर क्रमशः दूध, दही और मधु चढ़ाकर पितरों से तृप्ति की प्रार्थना की जाती है। दूध चढ़ाते समय ये मंत्र भी पढ़ा जाता है -
'ऊं पयः पृथ्वियां पय ओषधीय, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम।।'
दूध चढ़ाने के बाद दही और बाद में शहद चढ़ाएं।