आज आश्विन कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि और सोमवार का दिन है। पंचमी तिथि आज रात 9 बजकर 39 मिनट तक रहेगी। आज उन लोगों का श्राद्ध कर्म किया जायेगा, जिनका स्वर्गवास किसी भी महीने के कृष्ण या शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को हुआ हो। साथ ही जिनका देहांत अविवाहित अवस्था में, यानी कि शादी से पहले ही हो गया हो । इस दिन श्राद्ध कर्म करने वालों को प्रसाद में उत्तम लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। आचार्य इंदु प्रकाश से जानिए शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध की परिभाषा।
आज शाम 4 बजकर 37 मिनट तक ध्रुव योग रहेगा। किसी भी स्थिर कार्य जैसे भवन या इमारत का इस योग में निर्माण करने से सफलता मिलती है। कोई भी अस्थिर कार्य जैसे वाहन लेना इस योग में सही नहीं है। साथ ही आज पूरा दिन पूरी रात पार कर कल सुबह 8 बजकर 26 मिनट तक भरणी नक्षत्र रहेगा। 27 नक्षत्रों में से भरणी दूसरा नक्षत्र है। भरणी का अर्थ होता है- भरण-पोषण करना। इसका संबंध आंवले के पेड़ से बताया गया है। जिन लोगों का जन्म भरणी नक्षत्र में हुआ है उन्हें आज आंवले के पेड़ की पूजा करनि चाहिए । इसके अलावा भरणी नक्षत्र में जन्मे लोगों को आंवले के पेड़ , फल या उससे जुड़ी किसी अन्य चीज़ को नुकसान ना पहुचाएं और ना ही उसका सेवन करें।
पितृ पक्ष के दौरान भरणी नक्षत्र में अपराह्रन काल यानी दोपहर के समय भरणी श्राद्ध किया जाता है। भरणी नक्षत्र चतुर्थी तिथि को पड़ता है तो इसे चौथ भरणी और पंचमी तिथि को पड़ने पर भरणी पंचमी कहा जाता है। तृतीया तिथि को पड़ने वाले भरणी श्राद्ध को महाभरणी श्राद्ध भी कहा जाता है। पितृ पक्ष के दौरान भरणी नक्षत्र का अत्यधिक महत्व है क्योंकि इसके स्वामी मृत्यु के देवता यमराज हैं। कहा जाता है कि भरणी श्राद्ध को तर्पण करने से गया में श्राद्ध करने जितना ही फल मिलता है।
श्राद्ध क्या है?
श्राद्ध शब्द का अर्थ है पितरों के प्रति श्रद्धा भाव। हमारे भीतर प्रवाहित रक्त में हमारे पितरों के अंश हैं, जिसके कारण हम उनके ऋणी होते हैं और यही ऋण उतारने के लिए श्राद्ध कर्म किये
अतः श्राद्ध या पिंडदान मुख्यतः तीन पीढ़ियों तक के पितरों को दिया जाता है। पितृपक्ष में किये गए कार्यों से पूर्वजों की आत्मा को तो शांति प्राप्त होती ही है, साथ ही कर्ता को भी पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है। हमारे धर्म-शास्त्रों के अनुसार मृत्यु के बाद जीवात्मा को उसके कर्मानुसार स्वर्ग-नरक में स्थान मिलता है। पाप-पुण्य क्षीर्ण होने पर वह पुनः मृत्यु लोक में आ जाती है। मृत्यु के पश्चात पितृयान मार्ग से पितृलोक में होती हुई चन्द्रलोक जाती है। चन्द्रलोक में अमृतत्व का सेवन करके निर्वाह करती है और ये अमृतत्व कृष्ण पक्ष में चन्द्रकलाओं के साथ क्षीर्ण पड़ने लगता है। अतः कृष्ण पक्ष में वंशजों को आहार पहुंचाने की व्यवस्था की गई है। ये आहार श्राद्ध के माध्यम से पूर्वजों को पहुंचाया जाता है।
आप दूसरे तरीके से भी इस बात को समझ सकते हैं। पिता के जिस शुक्राणु के साथ जीव माता के गर्भ में जाता है, उसमें 84 अंश होते हैं, जिनमें से 28 अंश तो शुक्रधारी पुरुष के खुद के भोजनादि से उपार्जित होते हैं और 56 अंश पूर्व पुरुषों के रहते हैं। उनमें से भी 21 उसके पिता के, 15 अंश पितामह के, 10 अंश प्रपितामाह के, 6 अंश चतुर्थ पुरुष के, 3 पंचम पुरुष के और एक षष्ठ पुरुष के होते हैं। इस तरह सात पीढ़ियों तक वंश के सभी पूर्वज़ों के रक्त की एकता रहती है।
अतः श्राद्ध या पिंडदान मुख्यतः तीन पीढ़ियों तक के पितरों को दिया जाता है। पितृपक्ष में किये गए कार्यों से पूर्वजों की आत्मा को तो शांति प्राप्त होती ही है, साथ ही कर्ता को भी पितृ ऋण से मुक्ति मिलती है। हमारे धर्म-शास्त्रों के अनुसार मृत्यु के बाद जीवात्मा को उसके कर्मानुसार स्वर्ग-नरक में स्थान मिलता है। पाप-पुण्य क्षीर्ण होने पर वह पुनः मृत्यु लोक में आ जाती है। मृत्यु के पश्चात पितृयान मार्ग से पितृलोक में होती हुई चन्द्रलोक जाती है। चन्द्रलोक में अमृतत्व का सेवन करके निर्वाह करती है और ये अमृतत्व कृष्ण पक्ष में चन्द्रकलाओं के साथ क्षीर्ण पड़ने लगता है। अतः कृष्ण पक्ष में वंशजों को आहार पहुंचाने की व्यवस्था की गई है। ये आहार श्राद्ध के माध्यम से पूर्वजों को पहुंचाया जाता है।
शास्त्रों के अनुसार जानें क्या है श्राद्ध की परिभाषा
ब्रह्मपुराण के अनुसार - जो कुछ उचित काल, पात्र, एवं स्थान के अनुसार उचित विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है।
मिताक्षरा ने लिखा है- पितरों को उद्देश्य करके, उनके कल्याण के लिये, श्रद्धा पूर्वक किसी वस्तु का या उनसे सम्बन्धित किसी द्रव्य का त्याग श्राद्ध है।
श्राद्ध के बारे में याज्ञवल्कय का कथन है कि पितर लोग, यथा- वसु, रुद्र एवं आदित्य, जो श्राद्ध के देवता हैं, श्राद्ध से सन्तुष्ट होकर मानवों के पूर्वपुरुषों को सन्तुष्टि देते हैं।
मत्स्यपुराण और अग्निपुराण में भी आया है कि पितामह लोग श्राद्ध में दिये गये पिण्डों से स्वयं सन्तुष्ट होकर अपने वंशजों को जीवन, संतति, सम्पत्ति, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सभी सुख एवं राज्य देते हैं।
गरूण पुराण के हवाले से देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी है।