धर्म डेस्क: श्राद्ध (Shradh) शुरू हो गए हैं। इस दौरान घर के बड़े सदस्य अपने पितरों के श्राद्ध मनाकर उनकी आत्मा को शांति देंगे। पितृ पक्ष के पूरे 16 दिनों के दौरान श्राद्ध की इन तिथियों के मुताबिक श्राद्ध देंगे। जानिए आखिर श्राद्ध के समय तर्पण और पिंडदान क्यों है जरुरी। इसके साथ ही जानें किस तरह करना होता है शुभ।
क्या है श्राद्ध?
जो कुछ उचित काल, पात्र, एवं स्थान के अनुसार उचित विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है। मिताक्षरा ने लिखा है- पितरों को उद्देश्य करके, उनके कल्याण के लिये, श्रद्धा पूर्वक किसी वस्तु का या उनसे सम्बन्धित किसी द्रव्य का त्याग श्राद्ध है। (कुंडली के पितृदोष से है परेशान, तो इन दिनों में नक्षत्र के अनुसार करें श्राद्ध )
श्राद्ध के बारे में याज्ञवल्कय का कथन है कि पितर लोग, यथा- वसु, रुद्र एवं आदित्य, जो श्राद्ध के देवता हैं, श्राद्ध से सन्तुष्ट होकर मानवों के पूर्वपुरुषों को सन्तुष्टि देते हैं। मत्स्यपुराण और अग्निपुराण में भी आया है कि पितामह लोग श्राद्ध में दिये गये पिण्डों से स्वयं सन्तुष्ट होकर अपने वंशजों को जीवन, संतति, सम्पत्ति, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सभी सुखएवं राज्य देते हैं। इसके अलावा गरूण पुराण के हवाले से श्री कृष्ण का वचन भी उद्धृत है समयानुसार श्राद्ध करने से कुल में कोई दुःखी नहीं रहता। पितरों की पूजा से मनुष्य आयु, पुत्र,यश, कीर्ति, स्वर्ग, पुष्टि, बल, श्री, सुख-सौभाग्य और धन-धान्य को प्राप्त करता है। देवकार्य की तरह पितृकार्य का भी विशेष महत्व है। देवताओं से पहले पितरों को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी है। (राशिफल 29 सिंतबर: बन रहे है 2 शुभ योग, इन राशियों को मिलेगा बिजनेस और नौकरी में लाभ ही लाभ )
क्या है तर्पण
तर्पण से पितर संतुष्ट और तृप्त होते हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार जिस प्रकार वर्षा का जल सीप में गिरने से मोती, कदली में गिरने से कपूर, खेत में गिरने से अन्न और धूल में गिरने से कीचड़ बन जाता है, उसी प्रकार तर्पण के जल से सूक्ष्म वाष्पकण देव योनि के पितर को अमृत, मनुष्य योनि के पितर को अन्न, पशु योनि के पितर को चारा और अन्य योनियों के पितरों को उनके अनुरूप भोजन और सन्तुष्टि प्रदान करते हैं। साथ ही जो व्यक्ति तर्पण कार्य पूर्ण करता है, उसे हर तरफ से, हर तरह का लाभ मिलता है और नौकरी व बिजनेस में सफलता मिलती है।
इस तरह किया जाता है तर्पण
आचार्य इंदु प्रकाश के अनुसार तर्पण कर्म मुख्य रूप से छः प्रकार से किये जाते हैं, जो कि इस प्रकार हैं -
- पहला देव-तर्पण
- दूसरा ऋषि तर्पण
- अगला दिव्य मानव तर्पण
- दिव्य पितृ-तर्पण
- यम तर्पण
- आखिरी मनुष्य-पितृ तर्पण ।
ऐसे करें तर्पण
इस प्रकार 6 प्रकार के तर्पण कार्य होते हैं, जिसमें से श्राद्ध के दौरान दिव्य पितृ-तर्पण किया जाता है। अब हम आपको बतायेंगे कि आपको पितृ तर्पण किस प्रकार करना है। श्राद्ध के दौरान तर्पण के लिये एक लोटे में साफ जल लेकर उसमें थोड़ा दूध और काले तिल मिलाकर तर्पण कार्य करना चाहिए। पितरों का तर्पण करते समय एक पात्र में जल लेकर दक्षिण दिशा में मुख करके बायां घुटना मोड़कर बैठें और अगर आप जनेऊ धारक हैं, तो अपने जनेऊ को बायें कंधे से उठाकर दाहिने कंधे पर रखें और हाथ के अंगूठे के सहारे से जल को धीरे-धीरे नीचे की ओर गिराएं। इस प्रकार घुटना मोड़कर बैठने की मुद्रा को पितृ तीर्थ मुद्रा कहते हैं। इसी मुद्रा में रहकर अपने सभी पितरों को तीन-तीन अंजुलि जल देना चाहिए और ध्यान रहे तर्पण हमेशा साफ कपड़े पहनकर श्रद्धा से करना चाहिए। बिना श्रद्धा के किया गया धर्म-कर्म तामसी तथा खंडित होता है। इसलिए श्रद्धा भाव होना जरूरी है।
क्या है पिंडदान का महत्व
श्राद्ध के दौरान पिंडदान का भी महत्व है। जिस तिथि को किसी स्वर्गवासी का श्राद्ध कार्य किया जाता है, उसी दिन उनके निमित्त तर्पण के साथ ही पिंडदान भी किया जाता है। स्थानीय जगहों पर अपने पूर्वज़ों के श्राद्ध वाले दिन पितरों के निमित खीर, पूड़ी, सब्जी और साथ ही अपने पितर की कोई मनपसंद चीज़ और एक अन्य सब्जी बनाई जाती है और इस भोजन को गोबर से बने उपले या कंडों की कोर पर रखकर पितरों को भोग लगाया जाता है और दोनों हाथों से कोर के बायीं ओर, यानी अपनी दाहिनी तरफ पानी छोड़ा जाता है। इस क्रिया को ही स्थानीय भाषा में पिंडदान कहा जाता है।लेकिन कुछ शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध-
कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके पिंड बनाए जाते हैं और इस क्रिया को सपिण्डीकरण कहा जाता है। यहां पिण्ड का अर्थ है शरीर। श्राद्ध में पूर्वजों के निमित्त पिंड बनाकर उनसे अपने आने वाले जीवन की शुभेच्छा की प्रार्थना की जाती है। कहते हैं पिण्डदान करने वाले व्यक्ति को उसके पूर्वज़ों के आशीर्वाद से संतति, सम्पति, विद्या और हर प्रकार की सुख-समृद्धि मिलती है।
इन लोगों के किए जाते है पिंडदान
दरअसल हर पीढ़ी के अंदर मातृकुल और पितृकुल दोनों की पहले तीन पीढ़ियों के गुणसूत्र उपस्थित होते हैं। अतः पिंडदान के लिये जो दूध, चावल और तिल के पिण्ड बनाये जाते हैं, वो पिता, पितामह और प्रतिपितामह के शरीरों का प्रतीक हैं। इन पिंडों को बनाकर आपस में मिलाया जाता है, फिर उन्हें अलग बांटा जाता है। इससे एक बात क्लियर है कि जिन-जिन लोगों के गुणसूत्र, यानी जीन्स व्यक्ति की देह में उपस्थित हैं, उन सबकी तृप्ति के लिये ये श्राद्ध कार्य या अनुष्ठान किया जाता है।
पिंडदान में किया जाता है ये काम
पिण्डदान के लिये पितृतीर्थ मुद्रा में दक्षिणाभिमुख होकर, यानी दक्षिण दिशा में मुख करके, अपना बायां घुटना मोड़कर बैठना चाहिए और मंत्र के साथ पिंड किसी थाली या पत्तल में स्थापित करने चाहिए। इस तरह सबसे पहला पिंड देवताओं के निमित निकालें। दूसरा पिंड ऋषियों के निमित। तीसरा दिव्य मानवों के निमित। चौथा दिव्य पितरों के लिए। पांचवां पिंड यम के नाम। छठा मनुष्य-पितरों के नाम। सातवां मृतात्मा के नाम। आठवां पिंड पुत्र रहितों के नाम। नौवां उच्छिन्न कुलवंश वालों के नाम। दसवां पिंड गर्भपात से मर जाने वालों के नाम। ग्यारहवां और बारहवां पिंड इस जन्म या अन्य जन्म के बन्धुओं के निमित।
इस तरह से कुल बारह पिंड थाली या पत्तल में निकाले जाते हैं और उन पर क्रमशः दूध, दही और मधु चढ़ाकर पितरों से तृप्ति की प्रार्थना की जाती है। दूध चढ़ाते समय ये मंत्र भी पढ़ा जाता है -
'ऊं पयः पृथ्वियां पय ओषधीय, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम।।'
इस प्रकार मंत्र से पिंड पर दूध चढ़ाने के बाद दही और बाद में शहद चढ़ाएं।