ऐसा सुनकर भवानी ने अपने खडग से अपना ही सिर धड़ से अलग कर दिया। कटा हुआ सिर उनके बाए हाथ में जा गिरा और तीन रक्त धराएं बहने लगी। वह दो धाराओं को अपनी सहेलियों की ओर प्रवाहित करने लगी। और तीसरी धारा जो ऊपर की ओर बह रही थी, उसे स्वयं माता पान करने लगी। तभी से ये छिन्नमस्तिके कही जाने लगीं।
असम में मां कामाख्या और बंगाल में मां तारा के बाद झारखंड का मां छिन्नमस्तिका मंदिर तांत्रिकों का मुख्य स्थान है। यहां देश-विदेश के कई साधक अपनी साधना करने नवरात्रि और प्रत्येक माह की अमावस्या की रात में आते हैं। तंत्र साधना द्वारा मां छिन्नमस्तिका की कृपा प्राप्त करते हैं।
मां छिन्नमस्तिका का सिर कटा है। इनके गले के दोनो ओर से बहती हुई रक्तधारा को दो महाविधाएं ग्रहण करती हुई दिखाई दे रही है। मां के पैर के नीचे कमलदल पर लेटे हुए रामदेव और रति है। यहां पर बकरे की बलि दी जाती है।
बलि के बाद सिर पुजारी ले जाता है और बता भाग देने वाले व्यक्ति को दे दिया जाता गै। लेकिन सबसे आश्चर्य की बात ये है कि जिस जगह बकरे की बलि दी जाती है। वहां पर इतना खून पड़े रहने के बाद भी एक भी मक्खी नहीं लगती है।