नई दिल्ली: मुहर्रम और ताज़िये का गहरा संबंध है। मुहर्रम में शिया मुसलमान नौ दिन हज़रत इमाम हुसैन की शहादत को याद करने के बाद आख़िरी दिन (अशूरा) यानी दसवें दिन ताज़िये का जुलूस निकालर फिर उन्हें ठंडा (नदी, पानी में बहाना) कर देते हैं। दरअसल ताज़िये हज़रत इमाम हुसैन कि याद मे बनाया जाता है।
बांस की कमाचिय़ों पर रंग-बिरंगे कागज, पन्नी आदि चिपका कर मक़बरे के आकार का मंडप बनाया जाता है जो एक तरह से हज़रत इमाम हुसेन की कब्र के प्रतीक होते हैं। वैसे ताज़ियों का जुलूस मुहर्रम के नौवें दिन रात से ही निकलने लगते हैं।
इस्लामिक कैलेंडर के हिसाब से पड़ने वाला पहला महीना मुहर्रम, इमाम हुसैन की शहादत का प्रतीक बन गया है। मुहर्रम में पहले महीने में 1 से 10 तारीख तक सबसे अहम हैं। 10 तारीख को इमाम हुसैन की शहादत कर्बला में अपने 71 साथियों के साथ हुई थी।
तत्कालीन अरब के शासक यजीद ने पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद साहब के आदर्शों, शिक्षा को ताक पर रखकर जब अरब का शासन चलाना चाहा तो उसमें इमाम हुसैन औऱ उनका परिवार एक रुकावट की तरह नज़र आया।
यजीद ने अरब में जुआख़ानों, शराबख़ानों और अन्य अनैतिक कामों पर नैतिकता की मुहर लगा दी। इमाम हुसैन का संबंध पैग़ंबर साहब के परिवार से था लेकिन यजीद चाहता था कि इमाम हुसैन उसे अपना ख़लीफ़ा मान लें। इमाम हुसैन ने इससे इनकार किया।
इमाम हुसैन ने पैग़ंबर के आदर्शों का हवाला देकर इसे नामुमकिन बताया और मदीना छोड़कर भारत आने का फैसला किया। भारत की ख्याति उस दौर में भी ऐसे उदारवादी देश की थी, जहां कोई भी आकर रह सकता था। भारत में उस समय चंद्रगुप्त का शासन था जिनके बेटे समुद्रगुप्त की एक रानी ईरानी थी। हालांकि इमाम हुसैन भारत नहीं पहुंच सके।