इस महायोद्धा के शरीर में समा गए थे विदुरजी के प्राण
पांडव अपने सेना के साथ चलते-चलते उस स्थान पर आ गए, जहां धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती रहते थे। जब युधिष्ठिर ने उन्हें देखा तो वे बहुत प्रसन्न हुए और मुनियों के वेष में अपने परिजनों को देखकर उन्हें शोक भी हुआ। धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती भी अपने पुत्रों व परिजनों को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। जब युधिष्ठिर ने वहां विदुरजी को नहीं देखा तो धृतराष्ट्र से उनके बारे में पूछा। धृतराष्ट्र ने बताया कि वे कठोर तप कर रहे हैं। तभी युधिष्ठिर को विदुर उसी ओर आते हुए दिखाई दिए, लेकिन आश्रम में इतने सारे लोगों को देखकर विदुरजी पुन: लौट गए।
युधिष्ठिर उनसे मिलने के लिए पीछे-पीछे दौड़े। तब वन में एक पेड़ के नीचे उन्हें विदुरजी खड़े हुए दिखाई दिए। उसी समय विदुरजी के शरीर से प्राण निकले और युधिष्ठिर में समा गए। जब युधिष्ठिर ने देखा कि विदुरजी के शरीर में प्राण नहीं है तो उन्होंने उनका दाह संस्कार करने का निर्णय लिया। तभी आकाशवाणी हुई कि विदुरजी संन्यास धर्म का पालन करते थे। इसलिए उनका दाह संस्कार करना उचित नहीं है। यह बात युधिष्ठिर ने आकर महाराज धृतराष्ट्र को बताई। युधिष्ठिर के मुख से यह बात सुनकर सभी को आश्चर्य हुआ।
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