धर्म डेस्क: उज्जैन में शुरु होने वाले सिंहस्थ महाकुंभ का सिर्फ एक दिन बचा है। इस कुंभ मेले का इतिहास कम से कम 850 साल पुराना है। इस मेले के आयोजन को लेकर दो-तीन पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन के आदिकाल से ही हो गई थी।
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ऐसा कहा जाता है कि एक बार देवताओं और दानवों ने रत्नों की प्राप्ति हेतु समुद्र मंथन किया। इस उपक्रम में उन्होंने सुमेरु पर्वत को मथनी तथा शेषनाग को रज्जु बनाया। फलस्वरूप मंथन के उपरांत समु्द्र में से 14 रत्न निकले। इनमें से एक 'अमृतभरा कुंभ' भी था। उस कलश को लेकर देवताओं और दानवों के मध्य छीना-झपटी हुई।
सूर्य, चंद्र, बृहस्पति आदि ग्रहों के पास से होता हुआ अंतत: यह कुंभ इंद्र के पुत्र जयंत के हाथ पड़ा। वह इसे देवलोक में ले गया। अमृत पीकर देवता अमर हो गए। इस भाग-दौड़ में अमृत 4 स्थानों- नासिक, उज्जैन, प्रयाग एवं हरिद्वार में छलका। अमृत के छलकने के कारण प्रत्येक 12 साल बाद इन स्थानों पर कुंभ पर्व मनाया जाता है। बैसे तो इन जगहों और इस पर्व का अपना ही धार्मक महत्व है, लेकिन इस बारें में ज्योतिषशास्त्र क्या कहता है।
ज्योतिष शास्त्र कुंभ मेला के बारें में ग्रहों की स्थिति एवं गति के आधार पर इन चारों स्थलों पर महाकुंभ निम्न योग के आधार पर मनाया जाता है। पौराणिक ग्रंथों जैसे नारदीय पुराण, शिव पुराण एवं वाराह पुराण और ब्रह्मा पुराण आदि में भी कुंभ एवं अर्ध कुंभ के आयोजन को लेकर ज्योतिषीय विश्लेषण उपलब्ध है।
कुंभ पर्व हर 3 साल के अंतराल पर हरिद्वार से शुरू होता है। कहा जाता है कि हरिद्वार के बाद कुम्भ पर्व प्रयाग नासिक और उज्जैन में मनाया जाता है। प्रयाग और हरिद्वार में मनाये जानें वाले कुंभ पर्व में एवं प्रयाग और नासिक में मनाए जाने वाले कुंभ पर्व के बीच में सालों का अंतर होता है।
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