दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण लक्ष्मी उसी समय स्वर्गलोक को छोड़कर पाताल चली गई। लक्ष्मी के चले जाने से इंद्र सहित सभी देवता निर्बल और श्रीहीन हो गए। उनका वैभव लुप्त हो गया। जब पाताल लोक में रहने वालें राक्षसों ने देखा कि माता लक्ष्मी उनका ओर आ रही है तो वह बहुत प्रसन्न हुए जिसके कारण कह बलशाली बन गए गए और देवताओं को हरा कर इंद्रलोक को पाने के बारें में सोचने लगे। तब इन्द्र देवगुरु बृहस्पति और अन्य देवताओं के साथ ब्रह्माजी की सभा में उपस्थित हुए।
तब ब्रह्माजी बोले कि हे इंद्र! भगवान विष्णु के भोगरूपी पुष्प का अपमान करने के कारण रुष्ट होकर भगवती लक्ष्मी तुम्हारे पास से चली गयी हैं। उन्हें दुबारा प्रसन्न करने के लिए तुम भगवान नारायण की कृपा-दृष्टि प्राप्त करो। उनके आशीर्वाद से तुम्हें खोया हुआ वैभव दुबारा मिल जाएगा।
इस प्रकार ब्रह्माजी ने इन्द्र को आस्वस्त किया और उन्हें लेकर भगवान विष्णु के पास गए और उनसे समाधान मांगा तो वह बोले कि मैं स्वयं महालक्ष्मी के जाने से शक्तिहीन हो गया हूं जिसके कारण मै आप लोगों की कोई सहायता न कर सकता है। बार-बार देवताओं के आग्रह करने पर विष्णु बोले कि महालक्ष्मी राक्षसों के पास जानें से वह शक्तिशाली बन गए है जिसके कारण वह ऐसे तो मानेगे नही।
इसलिए हमें ऐसा कोई काम करना होगा। जिसमें हमारी सहायता राक्षस भी करें। इसके बाद वह बोले कि हम समुद्र मंथन करके अमृत की प्राप्ति करते है । जिसको पी कर हम लोक अमर हो जाएगें और राक्षसों को आसानी से हरा सकते है। सभी को यह युक्ति अच्छी लगी।
तब देवताओं ने राक्षसों को अमृत का लालच देते हुए अपना एक दूत इंद्र ने पाताललोक में दैत्यराज बलि के पास भेजा। दूत की बात सुनकर राश्रसों को लगा कि यह महालक्ष्मी को पानें की साजिश की जा रही है, लेकिन अमृत के लालच के आगे उन्होनें हां कह दिया। इसके बाद जब देवताओं तथा असुरों ने समुद्र मंथन आरंभ किया, तब भगवान विष्णु ने कच्छप बनकर मंथन में भाग लिया। वे समुद्र के बीचोबीच में वे स्थिर रहे और उनके ऊपर रखा गया मदरांचल पर्वत। फिर वासुकी नाग को रस्सी बानाकर एक ओर से देवता और दूसरी ओर से दैत्यों ने समुद्र का मंथन करना शुरू कर दिया।
इस तरह सबसे पहले हलाहल विष निकला जिसे शिव ने अपने कंठ में रखा और नीलकंठ कहलाएं । इसके बाद क्रमश: कामधेनु, घोड़ा, ऐरावत हाथी निकलें। हजारों साल चलें इस मंथन में आखिरकार एक दिन महालक्ष्मी निकली । जिस दिन महालक्ष्मी निकली उस दिन कार्तिक कृष्ण पक्ष की आमावस्या थी। उनके रूप को देखकर उनका नाम समुदतया रखा गया। भगवान विष्णु लक्ष्मी को पाकर फिर से बलशाली हो गए और उन्हें अपने वक्षस्थल में धारण कर लिया।
जिस समय माता लक्ष्मी का समुद्र मंथन से आगमन हो रहा था उस समय सभी देवता हाथ जोड़कर आराधना, स्त्रोत का पाठ कर रहे थे। इसके साथ ही भगवान वुष्णु भी हाथ जोड़कर उनका आराधना कर रहे थे। इसके कारण कार्तिक आमावस्या के दिन महालक्ष्मी की पूजा की जाती है। हर जगह उजाला किया जाता है।
महालक्ष्मी के साथ गणेश जी और सरस्वती जी की पूजा का मतलब है कि हम भी केवल लक्ष्मी के मय में कोई गलत काम न कर दें। इसलिए हमें बुद्धि और ज्ञान देने के लिए इन दोनों की पूजा की जाती है।