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जन्माष्टमी स्पेशल: लोक मंगल के लिए लीलाएं करने वाले कर्मयोगी कृष्ण

लोक में कृष्ण की छवि ‘कर्मयोगी’ के रूप में कम और ‘रास-रचैय्या’ के रूप में अधिक है। उन्हें विलासी समझा जाता है और उनकी सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ बताकर उनकी विलासिता सप्रमाणित की जाती है।

India TV Lifestyle Desk
Updated : August 24, 2016 23:43 IST
lord krishna
lord krishna

वे खोखले आदर्शों के मिथ्या मोह में नहीं फँसे। रूढ़ियाँ उन्हें बाँध न सकीं और जड़ता भरे विश्वास उन्हें रोक नहीं पाए। युधिष्ठिर की तरह सत्य की रूढ़ि में वे नहीं उलझे। सत्य के वास्तविक स्वरूप को समझने की अद्भुत शक्ति उनका संबल बनी।

यही उनकी सफलताओं का आधार भी रही। वे सच्चे कर्मयोगी थे। राजर्षियों की परम्परा का पालन उन्होंने सदा किया। स्वयं सर्वाधिक शक्तिमान होते हुए भी वे राज-सिंहासन पर नहीं बैठे। केवल ‘किंग-मेकर’ बनकर ही जिये। राज्य का मोह संवरण कर पाना, वह भी उस काल में जब राज्य के लिए राजकुलों में मारकाट मची थी, बड़ी बात थी।

ऐसा त्याग कृष्ण जैसा वीतराग महात्मा ही कर सकता है। कर्म की वेदी पर उन्होंने माया-मोह की आहुति दी। सम्बंधों का सुख त्यागा। लोकमंगल कृष्ण-चरित्र का मेरूदण्ड है। वृन्दावन में कंस-प्रेरित राक्षसों के वध से लेकर महाभारत में दुर्योधन की जाँघ तुड़वाने तक की सारी संहार-लीला उन्होंने लोकमंगल के लिए ही रची।

सुन्दर उपवन के सृजन के लिए बबूलों और कँटीली झाड़ियों को जड़ से उखाड़ फेंकना माली की विवशता है। ऐसी ही विवशता कृष्ण के समक्ष भी थी। मानवीय-मूल्यों पर कुठाराघात कर पाशविक वृत्तियों का प्रसार करने वालों का संहार ही उस युग में एकमात्र कारगर उपाय बचा था। कृष्ण ने वही स्वयं किया और अपने अनुयायियों से भी कराया। इसीलिए द्वापर युग का अन्तिम चरण सुख-शान्ति से बीत सका।

आज समानता और दलितोत्थान के जो नारे हमारे जनतन्त्र में दिए जा रहे हैं उनका सच्चा जनतान्त्रिक स्वरूप कृष्ण के आचरण में मिलता है। उनके लिए मानवीय धरातल पर सुदामा और किसी किरीटधारी में कोई भेद नहीं। आतिथ्य मूल्य के निर्वाह में वे दोनों के प्रति समान हैं। उनकी दृष्टि में मूल्य मनुष्य की सज्जनता का है, उसके सद्गुणों, सद्भावों और कर्मों का है ; उसके जातिगत या आर्थिक आधार का नहीं।

द्वारिकाधीश होकर भी वे सुदामा के परम मित्र हैं। निर्वासित पाण्डवों के हितैषी हैं, शासक सुयोधन के नहीं, जो उनका सगा समधी है। धर्म और न्याय के पथ पर यही सच्चा समानता बोध है। परिवारवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद आदि की संकीर्णताओं से मुक्त होकर ही व्यक्ति सामाजिक-न्याय का निर्वाह कर सकता है।

यदि हमारे आज के तथाकथित द्वारिकाधीश वोट के लिए जाति की तुच्छ राजनीति से ऊपर उठकर कृष्ण के अनुकरण पर व्यक्ति के गुणों, उसकी क्षमताओं और प्रतिभा को महत्त्व दें तो सामाजिक समानता, न्याय और दलितोत्थान के स्वर्णिम स्वप्न शीघ्र ही साकार हो सकते हैं।

नारी की अस्मिता, स्वायत्तता, स्वाधीनता और गौरव की रक्षा के लिए भी कृष्ण का कृतित्व अनुकरणीय है। उनमें अपहृताओं को अपनाने का साहस है तो सरेआम भरे दरबार में अपमानित होती

नारी की अस्मिता बचाने की अद्भुत सामथ्र्य भी है। नारी को अपना पति चुनने की छूट देने के सम्बंध में वे दोहरे मानदण्ड नहीं रखते। जिस प्रकार रूक्मिणी की इच्छा का सम्मान करते हूए उसके भाई की इच्छा के विरूद्ध उसका बलपूर्वक हरण कर लाते हैं, उसी प्रकार अपनी बहिन सुभद्रा को अर्जुन पर आसक्त देखकर बलराम की इच्छा के विरूद्ध सुभद्रा का हरण अर्जुन से करा देते हैं।

ऐसा पुरूष चरित्र अन्यत्र दुर्लभ है। पुरूष की मानसिकता अपनी बहिन और दूसरों की बहिन में स्वतंत्रता के प्रश्न पर प्रायः अन्तर करती है। वह स्वयं अपहरण करना तो पसन्द करता है किन्तु अपने कुल की नारी का अपहरण किया जाना कदापि पसन्द नहीं करता। कृष्ण इस मानसिकता से मुक्त हैं। इसीलिए नारी उद्धार के अनुकरणीय उदाहरण हैं।

आजकल नारी-विमर्श की बड़ी चर्चा है। नारी को पुरूष से अलग करके देखा जा रहा है। विभिन्न आन्दोलन और चर्चाएँ जारी हैं। आश्चर्य यह है कि इन सबके बावजूद आज नारी-शोषण चरम-सीमा पर है। नारी-भ्रूण की हत्याएँ हो रही हैं। सरेआम उसे निर्वस्त्र किया जा रहा है। उस पर बलात्कार हो रहे हैं।

कहीं उसे बरगला कर घर से भगाकर लाया जा रहा है तो कभी देह व्यापार के लिए विवश किया जा रहा है। वह दहेज की बलि चढ़ रही है। विष पी रही है। परित्यक्ता बनकर अपमानित जीवन जी रही है। कितनी ही द्रुपदाओं के चीरहरण रोज हो रहे हैं किन्तु उनके रक्षक कौरव सभासदों की भाँति या तो बिके हुए हैं या फिर पाण्डवों की तरह रूढ़ सत्य की बेड़ियों में जकड़े हैं।

दुर्योधन, कर्ण, भीष्म, द्रोण, शकुनि, युधिष्ठिर आदि सब हैं किन्तु कृष्ण नहीं हैं, जो चीर बढ़ाकर नारी की लाज बचा सकें; भीम को उनकी प्रतिज्ञा याद दिलाकर निर्लज्ज कामुकों की जंघाएँ तुड़वा सकें। अकेले कृष्ण के अभाव में पाण्डवी शक्ति मूर्च्छित है। आज सारा परिदृश्य महाभारत कालीन मूल्यों के अवमूल्यन-संकट से गुजर रहा है।

महाभारत के खल पात्र पग-पग पर सक्रिय हैं। सत्पात्रों में भीष्म-द्रोण जैसों के दर्शन भी यदाकदा हो जाते हैं, किन्तु समूचे परिदृश्य से कृष्ण अनुपस्थित हैं क्योंकि उन्हें हमने मन्दिरों में जड़ मूर्ति बनाकर रख दिया है। उनकी समाज-प्रेरक की भूमिका विस्मृत कर दी है। जब तक उसे पुनः स्मरण नहीं किया जाएगा तब तक नारी-उत्थान दिवास्वप्न ही रहेगा।

कर्तव्य-पालन के कंटकाकीर्ण पथ पर वे अभय थे। न किसी शक्ति का भय, न किसी प्रलोभन का मोह और न ही मान-अपमान की परवाह। ऐसा पवित्र चरित्र विश्व-साहित्य में दुर्लभ है। न्याय और सत्य की पुष्टि के लिए संघर्ष करने वालों को उनका चरित्र सदा ऊर्जा और प्रेरणा देता रहेगा संघर्ष-पथ के पथिको के लिए वे आकाश-दीप हैं, ध्रुव-नक्षत्र हैं।

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