अश्विन मास की कृष्ण अष्टमी तिथि माताओं के लिए काफी खास होती है। इस दिन महिलाएं संतान के सुखी, स्वस्थ और दीर्घायु जीवन की कामना पूरी करने के लिए निर्जला व्रत रखती हैं। जिसे जीवित्पुत्रिका व्रत के नाम से जाना जाता है। इसे जितीया और जिउतिया व्रत नामों से भी जाना जाता है। इस बार ये व्रत 10 सितंबर, गुरुवार को रखा जाएगा। जानिए पूजा का शुभ मुहूर्त और पूजा विधि और महत्व।
जिवित्पुत्रिका व्रत शुभ मुहूर्त
अष्टमी तिथि आरंभ: 9 सितंबर रात 9 बजे से
अष्टमी तिथि समाप्त: 10 सितंबर रात 10 बजकर 47 मिनट तक।
जीवित्पुत्रिका व्रत पूजा विधि
यह व्रत वैसे तो आश्विन मास की अष्टमी को रखा जाता है लेकिन इसका उत्सव तीन दिनों का होता है। सप्तमी का दिन नहाई खाय के रूप में मनाया जाता है तो अष्टमी को निर्जला उपवास रखना होता है। व्रत का पारण नवमी के दिन किया जाता है। वहीं अष्टमी को शाम प्रदोषकाल में संतानशुदा स्त्रियां माता जीवित्पुत्रिका और जीमूतवाहन की पूजा करती हैं और व्रत कथा सुनती या पढ़ती है। इसके साथ ही अपनी श्रद्धा व सामर्थ्य के अनुसार दान-दक्षिणा भी दी जाती है। इस व्रत में सूर्योदय से पहले खाया पिया जाता है। सूर्योदय के बाद पानी भी नहीं पिया जाता है। इसके साथ ही सूर्योदय को अर्द्ध देने के बाद कुछ खाया या पिया जाता है। वहीं व्रत के आखिरी दिन भात, मरुला की रोटी और नोनी का साग बनाकर खाने की परंपरा है।
जीवित्पुत्रिका व्रत कथा
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इस व्रत का संबंध महाभारत से माना जाता है। कथा के अनुसार अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए अश्वत्थामा पांडवों के वंश का नाश करने के अवसर ढूंढता है। एक दिन मौका पाकर उसने पांडव समझते हुए द्रौपदी के पांच पुत्रों की हत्या कर दी। उसके इस कृत्य की बदौलत अर्जुन ने अश्वत्थामा को बंदी बना लिया और उससे उसकी दिव्य मणि छीन ली। इसके पश्चात अश्वत्थामा का क्रोध और बढ़ गया और उसने उत्तरा की गर्भस्थ संतान पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया जिसे रोक पाना असंभव था। लेकिन उस संतान का जन्म लेना भी अति आवश्यक था। तब भगवान श्री कृष्ण ने अपने समस्त पुण्यों का फल उत्तरा को समर्पित किया जिससे गर्भ में मृत संतान का जीवन मिला। मृत्योपरांत जीवनदान मिलने के कारण ही इस संतान को जीवित्पुत्रिका कहा गया। यह संतान कोई और नहीं बल्कि राजा परीक्षित ही थे। उसी समय से आश्विन अष्टमी को जीवित्पुत्रिका व्रत के रूप में मनाया जाता है।
अन्य कथा
जीवित्पुत्रिका व्रत को जिउतिया अथवा जितिया भी कहा जाता है इसकी भी एक कथा मिलती है। बहुत समय पहले की बात है कि गंधर्वों के एक राजकुमार हुआ करते थे, नाम था जीमूतवाहन। बहुत ही पवित्र आत्मा, दयालु व हमेशा परोपकार में लगे रहने वाले जीमूतवाहन को राज पाट से बिल्कुल भी लगाव न था लेकिन पिता कब तक संभालते। वानप्रस्थ लेने के पश्चात वे सबकुछ जीमूतवाहन को सौंपकर चलने लगे। लेकिन जीमूतवाहन ने तुरंत अपनी तमाम जिम्मेदारियां अपने भाइयों को सौंपते हुए स्वयं वन में रहकर पिता की सेवा करने का मन बना लिया। अब एक दिन वन में भ्रमण करते-करते जीमूतवाहन काफी दूर निकल आया। उसने देखा कि एक वृद्धा काफी विलाप कर रही है। जीमूतवाहन से कहा दूसरों का दुख देखा जाता था उसने सारी बात पता लगाई तो पता चला कि वह एक नागवंशी स्त्री है और पक्षीराज गरुड़ को बलि देने के लिअ आज उसके इकलौते पुत्र की बारी है। जीमूतवाहन ने उसे धीरज बंधाया और कहा कि उसके पुत्र की जगह पर वह स्वयं पक्षीराज का भोजन बनेगा। अब जिस वस्त्र में उस स्त्री का बालक लिपटा था उसमें जीमूतवाहन लिपट गया। जैसे ही समय हुआ पक्षीराज गरुड़ उसे ले उड़ा। जब उड़ते उड़ते काफी दूर आ चुके तो पक्षीराज को हैरानी हुई कि आज मेरा यह भोजन चीख चिल्ला क्यों नहीं रहा है। इसे जरा भी मृत्यु का भय नहीं है। अपने ठिकाने पर पंहुचने के पश्चात उसने जीमूतवाहन का परिचय लिया। जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया। पक्षीराज जीमूतवाहन की दयालुता व साहस से प्रसन्न हुए व उसे जीवन दान देते हुए भविष्य में भी बलि न लेने का वचन दिया। मान्यता है कि यह सारा वाक्या आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था इसी कारण तभी से इस दिन को जिउतिया अथवा जितिया व्रत के रूप में मनाया जाता है ताकि संतान सुरक्षित रह सकें।