पौष शुक्ल पक्ष की उदया तिथि अष्टमी और दिन गुरुवार का दिन है। अष्टमी तिथि दोपहर 3 बजकर 51 मिनट तक ही रहेगी उसके बाद नवमी तिथि लग जाएगी | गुरुवार से पौष मास के गुप्त नवरात्र शुरू हो जाएगी और 28 जनवरी को पूर्णिमा के दिन ये नवरात्र समाप्त होंगे। साल भर में चार बार नवरात्र मनाई जाती हैं। चैत्र, आषाढ़, आश्विन और पौष इन चार महीनों में नवरात्र का त्यौहार मनाया जाता है। सामान्यतः ग्रहस्थों द्वारा चैत्र और आश्विन माह की नवारात्रि मनायी जाती हैं, जबकि आषाढ़ और पौष मास के नवरात्र विशेष सिद्धियों की प्राप्ति के लिए किए जाते हैं। इन्हें गुप्त नवरात्र के नाम से जाना जाता है। जबकि पौष मास के नवरात्र को शाकम्भरी नवरात्र के नाम से भी जाना जाता है।
नवरात्र शब्द संस्कृत भाषा से निकला है, जिसका अर्थ है 'नौ रातें'। साल भर में आने वाले सभी नवरात्र पूरे नौ दिनों तक मनाये जाते हैं। आज हम पौष मास के शाकम्भरी या गुप्त नवरात्र के बारे में बहुत सी खास बातों के बारे में जानिए आचार्य इंदु प्रकाश से।
कौन हैं देवी शाकम्भरी?
शाकम्भरी देवी माता दुर्गा के 51 शक्तिपीठों में से एक हैं । दुर्गा सप्तशती के मूर्ति रहस्य में देवी शाकंभरी के स्वरूप का वर्णन मिलता है- दुर्गा सप्तशती में देवी शाकंभरी का वर्ण नीला बताया गया है। इनके नेत्र नील कमल के समान हैं। देवी मां कमल के पुष्प पर विराजती रहती हैं। इनकी दो मुट्ठियों में से एक मुट्ठी में कमल का फूल रहता है, तो दूसरी मुट्ठी बाणों से भरी रहती है। तंत्र मंत्र की साधना के लिये इन्हें बहुत ही सिद्ध माना गया है। शाकम्भरी देवी को वनस्पति की देवी कहा जाता है। यह अपने साधकों का पालन - पोषण करती हैं। कभी भी अपने भक्त को भूखा सोने की नौबत नहीं आने देती।
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कहते हैं एक बार दुर्गम नाम के दैत्य ने ब्रहमा जी से चारों वेदों और युद्ध में हमेशा विजयी होने का वरदान मांगा था, जिसके कारण सभी देवी-देवता दुःखी होकर देवी मां की शरण में गये। अपने भक्तों का दुःख देखकर माता की आंखों से जल बहने लगा और ये जल की धारा हजारों सालों तक बहती रहीं, जिसके चलते पूरी दुनिया में अकाल पड़ गया। तब माता ने अपने शरीर से उत्पन्न विभिन्न साग - सब्जियों और वनस्पतियों से संसार का पालन - पोषण किया। उसी दिन से देवी दुर्गा का एक नाम ‘शाकम्भरी’ भी पड़ गया।
कलश स्थापना करने की सही दिशा
सामान्य और गुप्त, दोनों ही नवरात्र में कलश स्थापना करना अनिवार्य है। गुप्त नवरात्र के दौरान कलश स्थापना के लिये वास्तु नाग और सूर्य की स्थिति का ध्यान रखना चाहिए। सूर्य इस समय धनु राशि में है। दिशाओं के हिसाब से बात करें तो कन्या, तुला और वृश्चिक पूर्व दिशा में आती हैं, धनु, मकर और कुंभ दक्षिण दिशा में, मिथुन, कर्क और सिंह उत्तर दिशा में। जबकि मेष, वृष और मीन राशि पश्चिम दिशा में हैं। सूर्य जिस राशि में होता है, वास्तु नाग के मुंह की दिशा भी उसी आधार पर तय की जाती है। साथ ही सूर्यदेव पूर्व की ओर से अपनी गति शुरू करते हैं। अतः पूर्व दिशा से दक्षिण की तरफ, यानी दाहिनी ओर 10 डिग्री के अंश के अन्दर कलश की स्थापना करनी चाहिए। एक बार फिर से बता दूं- पूर्व दिशा से दक्षिण दिशा के हिस्से को 9 बराबर भागों में बांटें। अब पूर्व दिशा से पहले भाग का चुनाव करें और वहां पर गुप्त नवरात्रि के लिये कलश की स्थापना करें।
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ऐसे करें कलश स्थापना
कलश स्थापना के लिये जगह तो तय हो गयी, अब उस हिस्से की सबसे पहले सफाई करके, वहां पर जल छिड़कर साफ मिट्टी या बालू रखनी चाहिए। अब उस मिट्टी या बालू पर जौ की परत बिछानी चाहिए। फिर पुनः उस पर साफ मिट्टी या बालू की परत बिछानी चाहिए और उस पर जल का छिड़काव करना चाहिए। अब मिट्टी पर बिछाए जौ के ऊपर मिट्टी या धातु के कलश की स्थापना करनी चाहिए। किन्तु गुप्त नवरात्र में मिट्टी के कलश की ही प्रधानता है। उस कलश में ऊपर तक साफ पानी भरना चाहिए और उसके अन्दर एक सिक्का डालना चाहिए। अगर संभव हो तो कलश में सामान्य पानी के साथ गंगाजल भी जरूर डालना चाहिए।
इसके बाद कलश के मुख पर अपना दाहिना हाथ रखकर गंगा, यमुनी, कावेरी, गोदावरी, नर्मदा, आदि पवित्र नदियों का ध्यान करते हुए, उन नदियों के जल का आह्वाहन उस कलश में इस भाव से करना चाहिए कि सभी नदियों का जल उस कलश में आ जाये। साथ ही वरूण देव से भी उस कलश में अपना स्थान ग्रहण करने का आह्वाहन करना चाहिए। अब कलश के मुख पर कलावा बांधे और एक ढक्कन या दियाली या मिट्टी की कटोरी लेकर उस कलश को ढंक दें। उस ढकी गयी कटोरी में जौ भरना चाहिए, यदि जौ न हो तो चावल भी भर सकते हैं।
इसके बाद एक जटा वाला नारियल लेकर, उस पर लाल कपड़ा लपेटकर, उसे कलावे से बांध दें। अब कलावे से बांधे हुए उस नारियल को जौ या चावल से भरी हुई कटोरी के ऊपर स्थापित कर दें।
कलश स्थापना के समय ध्यान रखें ये 2 बातें
- पहली बात कुछ लोग कलश के ऊपर रखी गयी कटोरी में ही घी का दीपक जला लेते हैं, लेकिन ऐसा करना उचित नहीं है। कलश का स्थान पूजा के उत्तर-पूर्व कोने में होता है, जबकि दीपक के लिये दक्षिण-पूर्व कोना उचित होता है। अतः कलश के ऊपर दीपक नहीं जलाना चाहिए।
- दूसरी बात ये है कि कुछ लोग कलश के ऊपर रखी कटोरी में चावल भरकर, उसके ऊपर शंख स्थापित करते हैं तो आपको बता दूं- कि आप ऐसा कर सकते हैं, लेकिन ध्यान रहे कि शंख दक्षिणावर्ती होना चाहिए। शंख का मुंह ऊपर की ओर रखना चाहिए।
देवी मां की उपासना के दौरान दीपक जलाने का सही तरीका
अभी कुछ देर पहले मैंने ये तो आपको बताया ही है कि दीपक के लिये दक्षिण-पूर्व कोना उचित होता है, यानी दक्षिण-पूर्व दिशा के कोने में ही दीपक जलाना चाहिए। जानिए दीपक किस प्रकार का होना चाहिए और उसमे बत्ती लगाने के लिये किन बातों का ध्यान रखना चाहिए।
देवी-देवता के लिये अर्पित दीपक धातु, लकड़ी या मिट्टी से बना होना चाहिए। दीपक में घी और तेल को एक साथ कभी नहीं मिलाना चाहिए। घी के दीपक में सफेद खड़ी बत्ती लगाकर, उसे देवी-देवता के दाहिने हाथ की तरफ रखना चाहिए, यानी कि अपने बायें हाथ की तरफ. जबकि तिल के तेल के दीपक को देवता के बायीं तरफ, यानी कि अपने दाहिने हाथ की तरफ रखना चाहिए। तिल के तेल के दीपक में लाल बत्ती रखनी चाहिए और ये बत्ती पड़ी हुई होनी चाहिए। घी का दीपक देवता के लिये होता है, जबकि तेल का दीपक साधक की कामनाओं के लिये होता है। आप अपनी इच्छानुसार एक या दो दीपक जला सकते हैं