आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को हरिशयनी एकादशी का व्रत करने का विधान है। साथ ही आज से चातुर्मास की भी शुरुआत हो जायेगी। हरिशयनी एकादशी को देवशयनी, योगनिद्रा और 'पद्मनाभा' के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन भगवान श्री विष्णु विश्राम के लिए क्षीर सागर में चले जाएंगे और पूरे चार महीनों तक वहीं पर रहेंगे। भगवान श्री हरि के शयनकाल के इन चार महीनों को चातुर्मास के नाम से जाना जाता है | चातुर्मास के आरंभ होने के साथ ही अगले चार महीनों तक शादी-ब्याह आदि सभी शुभ कार्य बंद हो जायेंगे। जानिए देवशयनी एकादशी का शुभ मुहूर्त, पूजा विधि और व्रत कथा।
देवशयनी एकादशी मुहूर्त
एकादशी तिथि प्रारम्भ – 19 जुलाई को रात 9 बजकर 59 मिनट से
एकादशी तिथि समाप्त – 20 जुलाई शाम 7 बजकर 17 मिनट तक
एकादशी व्रत पारण- 21 जुलाई सुबह 5 बजकर 36 मिनट से 8 बजकर 21 मिनट तक
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देवशयनी एकादशी की पूजा विधि
शास्त्रों के अनुसार एकादशी शुरू होने के एक दिन पहले से ही इसके नियमों का पालन करना पड़ता है। इस दिन ब्रह्ममुहूर्त में उठकर सभी कामों से निवृत्त होकर स्नान करें। फिर स्वच्छ कपड़े पहनकर व्रत का संकल्प लें। आज भगवान विष्णु की विशेष रूप से पूजा-अर्चना की जाती है । इस दिन लकड़ी की चौकी पर पीले रंग का कपड़ा बिछाकर उस पर भगवान विष्णु की प्रतिमा को आसीन किया जाता है और उनके दायें हाथ की तरफ जल से भरा लोटा रखा जाता है। साथ ही भगवान की प्रतिमा के पास एक शंख और उनके सामने घी का दीपक रखा जाता है। अब सबसे पहले लोटे में भरे जल से उस स्थान को पवित्र कर लें। फिर घी का दीपक जलाएं। उसके बाद रोली, पान, सुपारी आदि से भगवान का पूजन करें। फिर भगवान को पुष्प अर्पित करें और साथ ही फल व मीठाई आदि से भगवान को भोग लगाएं। इस प्रकार पूजा के बाद भगवान की आरती करें और उनसे अपने जीवन की खुशहाली के लिये प्रार्थना करें। आज ऐसा करने से आपके जीवन में सुख समृद्धि बनी रहती है | जाने-अनजाने में आपसे जो भी पाप हुए हैं उनसे मुक्ति पाने के लिए भगवान विष्णु से हाथ जोड़कर प्रार्थना करें। इस दौरान 'ऊं नमो भगवते वासुदेवाय' मंत्र का जप निरंतर करते रहें। एकादशी की रात्रि प्रभु भक्ति में जागरण करे, उनके भजन गाएं। साथ ही भगवान विष्णु की कथाओं का पाठ करें। द्वादशी के दिन उपयुक्त समय पर कथा सुनने के बाद व्रत खोलें।
देवशयनी एकादशी व्रत कथा
धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा- हे केशव! आषाढ़ शुक्ल एकादशी का क्या नाम है? इस व्रत के करने की विधि क्या है और किस देवता का पूजन किया जाता है? श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे युधिष्ठिर जिस कथा को ब्रह्माजी ने नारदजी से कहा था वही मैं तुमसे कहता हूं।
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एक बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। किंतु भविष्य में क्या हो जाए, यह कोई नहीं जानता। अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है।
उनके राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। इस अकाल से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिंडदान, कथा-व्रत आदि में कमी हो गई। जब मुसीबत पड़ी हो तो धार्मिक कार्यों में प्राणी की रुचि कहाँ रह जाती है। प्रजा ने राजा के पास जाकर अपनी वेदना की दुहाई दी।
राजा तो इस स्थिति को लेकर पहले से ही दुःखी थे। वे सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौन सा पाप-कर्म किया है, जिसका दंड मुझे इस रूप में मिल रहा है? फिर इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए।
वहाँ विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुँचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ऋषिवर ने आशीर्वचनोपरांत कुशल मंगल पूछा। फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का प्रयोजन जानना चाहा।
तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा- महात्मन् सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हुआ भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूँ। आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है, कृपया इसका समाधान करें। यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा: हे राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है।
इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य जाति को तप करने का अधिकार नहीं है जबकि आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब तक वह काल को प्राप्त नहीं होगा, तब तक यह दुर्भिक्ष शांत नहीं होगा। दुर्भिक्ष की शांति उसे मारने से ही संभव है।
किंतु राजा का हृदय एक नरपराधशूद्र तपस्वी का शमन करने को तैयार नहीं हुआ। उन्होंने कहा: हे देव मैं उस निरपराध को मार दूं, यह बात मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है। कृपा करके आप कोई और उपाय बताएं। महर्षि अंगिरा ने बताया- आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी।
राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।
ब्रह्म वैवर्त पुराण में देवशयनी एकादशी के विशेष माहात्म्य का वर्णन किया गया है। इस व्रत से प्राणी की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।