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जानिए कुंभ मेले का पूरा इतिहास, साथ ही इसका आध्यात्मिक और धार्मिक महत्व

कुम्भ मेला 2019: जानिए कब से हैं इलाहाबाद कुंभ मेला साथ ही जानिए कब से शुरू और कब है समाप्त, साल 2019 के कुंभ मेले में होने वाला है यह खास जो आपने पहले कभी नहीं देखा होगा

Written by: India TV Lifestyle Desk
Updated : December 28, 2018 18:19 IST
कुंभ मेला 2019
कुंभ मेला 2019

नई दिल्ली: कुंभ मेला 2019 और शाही स्नान, प्रयागराज कुंभ मेला तारीख डेट कैलेंडर- 15 जनवरी से 4 मार्च 2019 तक रहेगा, उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में 15 जनवरी 2019 से शुरू होने जा रहे कुंभ मेले को सफल आयोजन के लिए पूरा सरकार अमला जूटा हुआ है। इस बार मेले में देश-विदेश से 12 से 15 करोड़ श्रद्धालुओं के पहुंचने की उम्मीद है। इन श्रद्धालुओं की सुरक्षा के लिए आरपीएफ के 2700 जवानों और अफसरों की तैनाती की जाएगी।

 
इलाहाबाद कुंभ मेला प्रयागराज का इतिहास क्या है:-
 
कुंभ मेले का आयोजन कब से हो रहा है, इसे ठीक-ठीक बता पाना मुश्किल है। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार चीनी तीर्थयात्री ह्वेनसांग के लेखन में सबसे पहले इस मेले का जिक्र मिलता है। वैसे पौराणिक कथाओं में सृष्टि के आरंभिक काल से ही इसके आयोजन का जिक्र मिलता है।
 
प्रयागराज में कुम्भ: प्रयागराज में कुम्भ मेला को ज्ञान एवं प्रकाश के श्रोत के रूप में सभी कुम्भ पर्वो में व्यापक रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। सूर्य जो ज्ञान का प्रतीक है, इस त्योहार में उदित होता है। शास्त्रीय रूप से ब्रह्मा जी ने पवित्रतम नदी गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर दशाश्वमेघ घाट पर अश्वमेघ यज्ञ किया था और सृष्टि का सृजन किया था।
 
कब और किसने शुरू किया कुंभ मेला:-
 
कुंभ मेले का शुभांरम्भ कब हुआ और किसने किया इतिहास के आधुनिक ग्रंथों में इसकी कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है परन्तु इसका जो लिखित प्राचीनतम वर्णन उपलब्ध है वह सम्राट हर्षवर्धन के समय का है, जिसका चीन के प्रसिद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग द्वारा किया गया है। इस पर्व पर हिमालय और कन्याकुमारी की दूरी सिमट जाती है। तथा अरुणाचल प्रदेश और कच्छ एक-दूसरे के पास आ जाते हैं। इस पर्व का आकर्षण ऐसा है कि दूर से और पास से गांव से और नगरों से झोपड़ियों से और महलों से लोग कुंभ नगरी मे सिमटते आ रहे हैं। इनकी भाषा वेश रंग-ढंग सभी एक दूसरे से भिन्न है परन्तु इनका लक्ष्य एक है। सभी की मंजिल एक है।      

क्या है कुंभ मेला का आध्यात्मिक महत्व:-
परम्परा कुंभ मेला के मूल को 8वी शताब्दी के महान दार्शनिक शंकर से जोड़ती है, जिन्होंने वाद विवाद एवं विवेचना हेतु विद्वान सन्यासीगण की नियमित सभा संस्थित की। कुंभ मेला की आधारभूत किवदंती पुराणों (किंबदंती एवं श्रुत का संग्रह) को अनुयोजित है-यह स्मरण कराती है कि कैसे अमृत (अमरत्व का रस) का पवित्र कुंभ (कलश) पर सुर एवं असुरों में संघर्ष हुआ जिसे समुद्र मंथन के अंतिम रत्न के रूप में प्रस्तुत किया गया था।

भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर अमृत जब्त कर लिया एवं असुरों से बचाव कर भागते समय भगवान विष्णु ने अमृत अपने वाहन गरूण को दे दिया, जारी संघर्ष में अमृत की कुछ बूंदे हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयाग में गिरी। सम्बन्धित नदियों के प्रत्येक भूस्थैतिक गतिशीलता पर उस महत्वपूर्ण अमृत में बदल जाने का विश्वास किया जाता है जिससे तीर्थयात्रीगण को पवित्रता, मांगलिकता और अमरत्व के भाव में स्नान करने का एक अवसर प्राप्त होता है। शब्द कुंभ पवित्र अमृत कलश से व्युत्पन्न हुआ है।
 
कुंभ मेला का ज्योतिषीय महत्व क्या है
कुम्भपर्व का मूलाधार पौराणिक आख्यानों से साथ-साथ खगोल विज्ञान ही है क्योंकि ग्रहों की विशेष स्थितियाँ ही कुम्भपर्व के काल का निर्धारण करती है। कुम्भपर्व एक ऐसा पर्वविशेष है जिसमें तिथि, ग्रह, मास आदि का अत्यन्त पवित्र योग होता है। कुम्भपर्व का योग सूर्य, चंद्रमा, गुरू और शनि के सम्बध में सुनिश्चित होता है। स्कन्द पुराण में लिखा गया है कि -
 
कुंभ मेला का सामाजिक महत्व क्या है
किसी उत्सव के आयोजन में भारी जनसम्पर्क अभियान, प्रोन्नयन गतिविधियां और अतिथियों को आमंत्रण प्रेषित किये जाने की आवश्यकता होती है, जबकि कुंभ विश्व में एक ऐसा पर्व है जहाँ कोई आमंत्रण अपेक्षित नहीं होता है तथापि करोड़ों तीर्थयात्री इस पवित्र पर्व को मनाने के लिये एकत्र होते हैं। मानव मात्र का कल्याण, सम्पूर्ण विश्व में सभी मानव प्रजाति के मध्य वसुधैव कुटुम्बकम के रूप में अच्छा सम्बन्ध बनाये रखने के साथ आदर्श विचारों एवं गूढ़ ज्ञान का आदान प्रदान कुंभ का मूल तत्व और संदेश है जो कुंभ पर्व के दौरान प्रचलित है। कुंभ भारत और विश्व के जन सामान्य को अविस्मरणीय काल तक आध्यात्मिक रूप से एकताबद्ध करता रहा है और भविष्य में ऐसा किया जाना जारी रहेगा।
 
कुंभ मेला का कुम्भ के कर्मकांड क्या है
भारतवर्ष में प्रकृति के विभिन्न स्वरूपों यथा नदी, पर्वत ,वृक्ष आदि को देव-स्वरुप मान कर उनकी आराधना करने का प्रचलन आदिकाल से चला आ रहा है। इसी क्रम में जीवनदायिनी निरंतर प्रवाहयुक्त नदियों को प्रमुखता प्रदान की गई है। सरल शब्दों में जीवनदायिनी के प्रति मानव कृतज्ञ होकर अपने भावों की अभिव्यक्ति उनके तट पर आरती के माध्यम से करता आ रहा है, जिसमे विशाल जनसमूह श्रद्धाभाव से सम्मिलित होता है।

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