मंदिर की उत्पत्ति का पौराणिक कथा
इस कथा के अनुसार पौराणिक काल में जहां पर आज आबू पर्वत स्थित है, वहां नीचे विराट ब्रह्म खाई थी। इसके तट पर वशिष्ठ मुनि रहते थे। उनकी गाय कामधेनु एक बार हरी घास चरते हुए ब्रह्म खाई में गिर गई, तो उसे बचाने के लिए मुनि ने सरस्वती गंगा का आह्वान किया तो ब्रह्म खाई पानी से जमीन की सतह तक भर गई और कामधेनु गाय गोमुख पर बाहर जमीन पर आ गई। लेकिन एक बार फिर ऐसा दोबारा हुआ।
जिसके कारण चिंतित वशिष्ठ मुनि इस हादसे को दुबारा टालने के लिए हिमालय से इस खाई को भरने का अनुरोध किया। जिससे कि कामधेनु दुबारा उस खाई मे न गिरे। हिमालय ने मुनि का अनुरोध स्वीकार कर अपने प्रिय पुत्र नंदी वद्र्धन को जाने का आदेश दिया।
अर्बुद नाग नंदी वद्र्धन को उड़ाकर ब्रह्म खाई के पास वशिष्ठ आश्रम लाया। आश्रम में नंदी वद्र्धन ने वरदान मांगा कि उसके ऊपर सप्त ऋषियों का आश्रम होना चाहिए एवं पहाड़ सबसे सुंदर व विभिन्न वनस्पतियों वाला होना चाहिए।
वशिष्ठ ने वांछित वरदान दिए। उसी प्रकार अर्बुद नाग ने वर मांगा कि इस पर्वत का नामकरण उसके नाम से हो। इसके बाद से नंदी वद्र्धन आबू पर्वत के नाम से विख्यात हुआ। वरदान प्राप्त कर नंदी वद्र्धन खाई में उतरा तो धंसता ही चला गया, केवल नंदी वद्र्धन का नाक एवं ऊपर का हिस्सा जमीन से ऊपर रहा, जो आज आबू पर्वत है।
इसके बाद भी वह अचल नहीं रह पा रहा था, तब वशिष्ठ के विनम्र अनुरोध पर महादेव ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे पसार कर इसे स्थिर किया यानी अचल कर दिया तभी यह अचलगढ़ कहलाया। तभी से यहां अचलेश्वर महादेव के रूप में महादेव के अंगूठे की पूजा-अर्चना की जाती है। यहां पर रोज भगवान शिव को जल चढ़ाया जाता है।
कहां जाता है इतना पानी, बना हुआ है रहस्य
इसके पीछे मान्यता है कि जल उस प्राचीन खाई में चला जाता है। इसलिए यहां कितना भी जल चढ़ाया जाए, वह उसमें समा जाएगा। आज तक ये बात कोई नहीं समझ पाया कि आखिर चढ़ाया हुआ जल कहा चला जाता है। जो हमेशा से ही एक रहस्य बन हुआ है।