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New Year 2020 में हिल स्टेशन की बजाय गांव हो आइए, लाइफ होगी एक्स्ट्रा चार्ज

नए साल में हिल स्टेशन की बजाय अपने घर और गांव का चक्कर लगाकर आइए, बच्चों के साथ...यकीन कीजिए लाइफ एक्स्ट्रा चार्ज हो जाएगी

Edited by: Vineeta Vashisth
Published on: December 28, 2019 13:19 IST
this new year go to your parental hole- India TV Hindi
नए साल पर हिल स्टेशन नहीं गांव होकर आइए

यार इस साल भी गांव नहीं जा पाए...अम्मा बुलाती रह गईं...अगले बरस पक्का चलेंगे...कुछ ऐसी ही फीलिंग रहती हैं उन बेजार लोगों की जो रोजी रोटी कमाने के लिए शहरों में आ गए हैं लेकिन अपने गांव जवार जाने का वक्त नहीं निकाल पाते, और उसी कोफ्त में खून सुखाए जा रहे हैं। अगर नौकरी और बिजनेस के चलते पिछले साल अपने गांव नहीं जा पाए और पूरे साल ये टीस सालती रही है तो नया साल आपको मौका दे रहा है जिंदगी को रिवाइंड करके देखने का। जी  हां, नए साल के मौके पर लगे  हाथ गांव घूम आइए एक बार, फिर देखिएगा, गांव की सौंधी महक लेकर जब लौटेंगे कर्मभूमि की तरफ तो पूरा साल इसी ऊर्जा में बीत जाएगा। बस ध्यान रखिएगा कि गांव को गांव के चश्मे से देखिएगा और पंगडंडियों की राह से नापिएगा....

आप देखेंगे कि कुछ दिन के इस चेंज से आपकी लाइफ एकदम बदल गई है। बात बात पर पुराने रिश्तों और दरकते उस गंवई आत्मविश्वास को पाने के लिए एक बार फिर परिवार के साथ अपने घर जाइए। आप कहीं के भी हो सकते हैं, बिहार के, मध्य प्रदेश के या फिर साउथ में किसी गांव के। हर बार से थोड़ी ज्यादा कोशिश कीजिए,छुट्टी मिल ही जाएगी। वहां भाभी से ठिठोली कीजिए, दीदी संग बचपने के किस्से याद कीजिए, चाची से सिर में तेल की मालिश करवाइए, बाबा के पैर दबाइए और मां के आंचल में किसी बिनौले की तरह दुबक जाइए। कहां मिलेगा ऐसा स्वर्ग, मटके का ताजा पानी, चूल्हे की रोटी, बागों से तोड़ कर आए फल, रौनक आ जाएगी चेहरे पर। 

गांव जाकर परिवार के साथ पकाइए खाइए, पगडंडियों पर सफर कीजिए। बच्चों को अपना गांव घुमाइए, पारंपरिक पकवान खाइए औऱ अपने छोटों और बड़ों के बीच क्लाविटी टाइम बिताइए। उस वक्त काम औऱ जिम्मेदारियों की चिंता मत कीजिएगा। पूरा साल पड़ा है, उनके लिए। नया साल रिश्तों को ताजा करने के लिहाज से बड़ा मौका है। ऐसे में गांव की जमीन, खेत, ट्यूबवेल, नदी, नहर हो तो बात ही क्या। चल पड़िए अपनी उन्हीं पंगडंडियों पर..जहां आपने बचपन और जवानी गुजारी है...

याद है वो कच्ची सड़क जहां साइकिल के टायर को दौड़ाकर हवाई जहाज बना दिया करते थे...वो तालाब जहां घंटों छपाक छपाक किया करते थे...वो बाग जहां माली को देखते ही भर गोदी अमरूद आम लेकर दौड़ लगा दिया करते थे. वो 

याद है गिलास्टा की वो पतंग..जिसे लूटने के लिए कितनी छतें कूद फांद जाया करते थे..छतों से याद आया...हर छत पर रात को महफिल सजा करती थी...गर्मियों की रात में पानी भरा लोटा लेकर अपनी अपनी चटाई साथ लेकर जब छत पर सोने जाया करते थे तो बातों की महफिल खत्म होने का नाम नहीं लिया करती थी। दीदियों की अनवरत चलती शादी की तैयारियां और मां की ना खत्म होने वाली रसोई...दादी का प्रभु सिमरण और दादा जी की हुक्के की गुड़ गुड़...सब याद आते हैं। 

परिंदों की भीड़ के साथ आती थी गांव की सुबह...शहरों में तो परिंदे नदारद हो गए हैं और शहर की सुबह सुबहों जैसी नहीं लगती..गांव में उड़ते, चुगते तैरते परिंदे ही परिंदे दिखा करते थे..गांव का सूरज ज्यादा चमकीला था..

याद है वो गांव जहां भाभियां काजल की आउटलाइनिंग नहीं करती थी..भर भर के काजल से आंखें कजरारी किया करती थी।

ग्लूकोज के बिस्किट, कंचे वाली बोतलें, पिपरमिंट वाली गोलियां, इलास्टिक वाली मिठाई, बुढ़िया के बाल..बर्गर और पिज्जा से दूर गांव की छोटी सी दुनिया में बहुत कुछ था मन चटपटा और मीठा करने के लिए।

गांव के खरपैल वाले घर बहुत मजबूत थे..इनके भीतर रहने वाले भी..गांव में मंदी नहीं आती..हवा जहरीली नहीं होती...पानी भी खूब होता है..वहां बालकनियों में चंद पौधे टांगकर हरियाली की चाहतें पूरी नहीं हुआ करती.वहां तो हर घर आंगन में अमरूद, शहतूत, नींबू, केले के पेड़ों के साथ साथ ढेरों फूल वाले पौधे हुआ करते थे। 

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