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सावधान! कहीं आप व्हाइट ब्रेड, कार्न फ्लेक्स तो नहीं खाते, हो सकता है कैंसर

व्हाइट ब्रेड, कार्न फ्लेक्स और तले-भुने चावल जैसे ग्लाइसेमिक इंडेक्स युक्त भोजन और पेय पदार्थ फेफड़ों के कैंसर के विकास को बढ़ा सकते हैं। ग्लाइसेमिक सूचकांक और ग्लाइसेमिक इंडेक्स (जीआई) एक संख्या है जो एक विशेष प्रकार के भोजन से संबंधित है।

IANS
Updated : March 07, 2016 7:05 IST
corn flour and white bread
corn flour and white bread

न्यूयार्क: सुबह के नाश्ते में अधिकतर लोग ब्रेड, कार्न फ्लेक्स और कई तले-भुने पदार्थो का सेवन करते हैं लेकिन यही पदार्थ फेफड़ों के कैंसर का रोगी बना सकते हैं। एक नए शोध में इसका खुलासा हुआ है।

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व्हाइट ब्रेड, कार्न फ्लेक्स और तले-भुने चावल जैसे ग्लाइसेमिक इंडेक्स युक्त भोजन और पेय पदार्थ फेफड़ों के कैंसर के विकास को बढ़ा सकते हैं। ग्लाइसेमिक सूचकांक और ग्लाइसेमिक इंडेक्स (जीआई) एक संख्या है जो एक विशेष प्रकार के भोजन से संबंधित है। यह व्यक्ति के रक्त में ग्लूकोज के स्तर पर भोजन के प्रभाव को इंगित करता है।

जीआई और फेफड़ों के कैंसर के बीच की कड़ी कुछ विशेष उपसमूहों से जुड़ी है। जैसे कि कभी भी धूम्रपान न करने वालों और स्क्वामस सेल कार्सिनोमा (एससीसी) फेफड़ों के कैंसर का उपसमूह। गोरी त्वचा, हल्के रंग के बालों और नीली, हरे, रंग की आंखों वाले लोगों में यह एससीसी विकसित होने का सबसे ज्यादा खतरा होता है।

शोधकर्ताओं ने अध्ययन में 1 हजार 905 रोगियों को शामिल किया था, जिन्हें हाल ही में फेफड़ों के कैंसर की शिकायत हुई थी। इसके साथ ही 2 हजार 413 स्वस्थ व्यक्तियों का भी सर्वेक्षण किया गया था। इस दौरान प्रतिभागियों ने अपनी पिछली आहार की आदतों और स्वास्थ्य इतिहास की जानकारी दी।

अमेरिकी की यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के एमडी एंडरसन कैंसर सेंटर से इस अध्ययन के वरिष्ठ लेखक जिफेंग वू ने बताया, "शोध के दौरान प्रतिदिन जीआई युक्त भोजन करने वालों में जीआई भोजन न करने वालों की तुलना में फेफड़ों के कैंसर का 49 प्रतिशत जोखिम देखा गया।"

आश्चर्य तौर पर कार्बोहाइड्रेट की सीमा मापने वाले ग्लाइसेमिक लोड (जीएल) का फेफड़ों के कैंसर से कोई महत्वपूर्ण संबंध नहीं मिला।

शोधार्थियों का कहना है कि तंबाकू और धूम्रपान का सेवन न करने वालों में भी फेफड़ों के कैंसर के लक्षण मिले हैं। जिससे पता चलता है कि आहार के कारक भी फेफड़ों के कैंसर जोखिमों से संबंधत हो सकते हैं। यह शोध पत्रिका 'कैंसर एपिडेमियोलॉजी बायोमार्कर्स एंड प्रिवेंशन' में प्रकाशित हुआ है।

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