हेल्थ डेस्क: देश में हर साल 27 हजार से ज्यादा नवजात सुनने में असमर्थता के साथ पैदा होते हैं, वहीं विश्व में इनकी संख्या 3.6 करोड़ से ज्यादा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी 2012 के आंकड़ों में इस बात का खुलासा हुआ है।
भारत में नवजातों के सुनने में असमर्थता की समस्या पर सर गंगाराम अस्पताल में वरिष्ठ ईएनटी व कॉक्लियर इंप्लांट सर्जन डॉ. शलभ शर्मा ने आईएएनएस को ईमेल साक्षात्कार में बताया, "सुनने में असमर्थता भारत में बड़े पैमाने पर एक उपेक्षित स्थिति है। भारत में सुनने में असमर्थ लोगों व बच्चों के लिए असली मुद्दा सुविधाओं की अपर्याप्तता है। मंशा होने के बावजूद सेवा और सुविधाओं की कमी ने सुनने में असमर्थ भारतीय समुदाय को प्रभावित किया है।"
उन्होंने कहा, "नवजातों में सुनने में असमर्थता होने के पीछे वंशानुगत व अवंशानुगत, आनुवंशिक कारकों, गर्भावस्था और प्रसव के दौरान समस्या जैसे कई कारण होते हैं। भारत में 6.3 फीसदी लोग सुनने में असमर्थता से ग्रस्त हैं। शहरी इलाकों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में बहरेपन से अधिक लोग ग्रस्त पाए जाते हैं।"
डॉ. शर्मा ने कहा, "भारत सरकार ने बहरेपन की रोकथाम और नियंत्रण (एनपीपीसीडी) के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू किया है, जिसमें भारत में बहरेपन की रोकथाम और इसके बोझ में कमी की परिकल्पना की गई है। सालों तक असमर्थता के साथ रहने (वाईएलडी) वालों में बहरापन दूसरा सबसे सामान्य कारण है, जिसका कुल वाईएलडी में 4.7 प्रतीशत हिस्सा है।"
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक, विश्व में कुल 3.2 करोड़ बच्चे बहरेपन का शिकार हैं, जिसमें से 60 फीसदी को बचपन में इस बीमारी से बचाया जा सकता था।
सुनने में असमर्थता के कारणों पर डॉ. शर्मा ने बताया, "इसमें प्रसव के दौरान माताओं के साइटोटॉक्सिक दवाओं और कुछ एंटीबायोटिक्स के संपर्क में आने, नवजात को होने वाला पीलिया, दम घुटना/हाइपोक्सिया, जन्म के वक्त शिशु का वजन कम होना, टॉर्च संक्रमण और दवाओं के संपर्क में आने से नवजात बहरेपन का शिकार हो सकते हैं।"
डॉ. शलभ शर्मा ने कहा, "सुनने में असमर्थता का कोई दृश्य संकेत नहीं है, इसलिए सबसे बड़ी चुनौती एक स्क्रीनिंग कार्यक्रम की कमी है, जिस कारण इन बच्चों में कमी के बारे में काफी उम्र तक पता नहीं चल पाता। 1.5 से तीन वर्ष की उम्र के बच्चों में पर्याप्त वार्ता और भाषा कौशल विकसित नहीं हो पाता, जिस कारण इसके संकेत को पहचानने में दिक्कत आती है।"
उन्होंने कहा, "सुनने में असमर्थता वाले बच्चों की पहचान करने के लिए अमेरिका में 1-3-6 कार्यक्रम शुरू किया गया, जिसके तहत एक महीने से कम उम्र के शिशु में सुनने में असमर्थता की समस्या की पहचान कर तीन महीने से पहले उसे सहायता देकर छह महीने की आयु से पहले ही प्रारंभिक उपचार के लिए नामांकित किया जाता है। भारत में भी माता और बच्चे को छुट्टी देने से पहले स्वास्थ्य केंद्र में प्रत्येक बच्चे की जांच वाला कार्यक्रम शुरू किया जा सकता है।"
सुनने में असमर्थता का पता लगाने की तकनीक पर डॉ. शलभ ने बताया, "बहरेपन का पता लगाने के लिए अनुक्रमिक (दो चरण) परीक्षण किया जा सकता है। दो चरणों की जांच में दो अलग-अलग इलेक्ट्रोफिजियोलॉजिकल उपायों ओएई और एबीआर का उपयोग कर विभिन्न असफल पैटर्न का पता लगाया जा सकता है।"
नवजातों में सुनने में असमर्थता का पता लगाकर उसके उपचार के सवाल पर उन्होंने कहा, "सुनने में असमर्थता वाले बच्चों की पहचान और उनका शुरुआत में उपचार करने वाली एक संभावित रणनीति के तहत यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि अस्पताल में जन्में हर नवजात के सुनने की क्षमता की जांच हो। प्रारंभिक पहचान और उसके फलस्वरूप उपचार से बच्चों में बेहतर उच्चारण विकास, स्कूल की स्कॉलिस्टिक उपलब्धियों में बेहतर और असीम पेशेवर अवसर प्रदान किए जा सकते हैं।"
उन्होंने कहा, "यह रणनीति अमरीका, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन समेत कई देशों में लागू की गई है। भारत में इस तरह का कोई कार्यक्रम नहीं है।"
नवजातों और बच्चों में सुनने में असमर्थता के लक्षणों का पता लगाने के सवाल पर उन्होंने बताया, "यह आयु पर निर्भर करता है, जैसे कि क्या जन्म से चार महीने तक नवजात जोर की आवाजों पर जागता है या हलचल करता है? जोर की आवाजों पर चौंकता है? परिचित की आवाज पर शांत होता है? आपकी आवाज पर प्रतिक्रिया देता है?"
उन्होंने कहा, "वहीं चार से नौ महीने का बच्चा क्या परिचित ध्वनियों की ओर आंखें मोड़ता है? बात करते वक्त हंसता है? झुनझुने और अन्य आवाज करने वाले खिलौने की तरफ आकर्षित होता है? विभिन्न जरूरतों के लिए रोता है? बड़बड़ाने वाली आवाजें निकालता है?"