हेल्थ डेस्क: मन में ब्रेस्ट कैंसर का ख्याल आते ही निराशा और नकारात्मकता का बोध होता है, भले ही इसकी दोहरी सर्जरी करा चुकीं हॉलीवुड सेलेब्रिटी एंजेलिना जोली का उदाहरण सामने हो या कुछ और। लेकिन कुछ रोगियों में ब्रेस्ट कैंसर भी आश्चर्यजनक रूप से सकारात्मकता का संचार करता है।
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बेंगलुरू के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज (निमहंस) ने किसी महिला के जीवन, आध्यात्म और रिश्तों पर कैंसर के प्रभाव का आकलन करने के लिए मनोविज्ञान की परतें खंगाली हैं।
निमहंस में क्लिनिकल साइकोलोजी के प्रोफेसर महेंद्र पी. शर्मा ने कहा, ब्रेस्ट कैंसर महिलाओं में कैंसर का सबसे आम रूप होने के बावजूद शुरुआती स्क्रिीनिंग और इलाज के तरीकों में सुधार के कारण दुनियाभर में इस घातक रोग से बचने वालों की संख्या में सुधार की संभावना है। लेकिन इलाज के बाद सबसे बड़ी चुनौती होती है अपने शारीरिक स्वरूप, रूमानी जीवन और रिश्तों में आए बदलाव को स्वीकारना और साथ ही इस रोग के फिर से सिर उभरने के भय से मुकाबला करना।"
शर्मा ने कहा, "हालांकि कैंसर से बचने वालों में से कुछ के जीवन में बेहद सकारात्मक बदलाव हो सकते हैं, जिन्हें पोस्ट ट्रॉमेटिक ग्रोथ (पीटीजी) का नाम दिया गया है।"
उन्होंने कहा, "इससे बचने वालों में जीवन के प्रति बेहद सकारात्मक रवैया देखा गया है। वे अपनी जिंदगी को भरपूर जीने लगते हैं और अपनी जरूरतों और प्राथमिकताओं का ख्याल रखते हैं। इसके अलावा एक अन्य खास बात जो देखी गई है, वह यह कि इस रोग से बची महिलाएं मानसिक रूप से बेहद मजबूत हो जाती हैं और यह सोचकर उनका आत्मविश्वास काफी बढ़ जाता है कि अगर वे कैंसर से जंग जीत सकती हैं तो जिंदगी में किसी भी चीज का मुकाबला कर सकती हैं।"
शर्मा और उनके सहकर्मियों ने दक्षिणी और पूर्वी भारत की 15 शहरी महिलाओं की जिंदगी का अध्ययन किया, जो शादीशुदा थीं और मासटेक्टोमी/लंपेक्टोमी से गुजर चुकी थीं और उनकी हार्मोनल थेरेपी जारी थी।
अध्ययनों में साबित हुआ है कि स्तर कैंसर से बचीं महिलाओं के लिए शादीशुदा जीवन से जुड़ीं कई चिंताएं होती हैं।
शर्मा ने कहा, "सर्जरी करा चुकीं महिलाएं खासतौर पर इस बात को लेकर चिंतित होती हैं कि उनका वैवाहिक रिश्ता पहले जैसा रहेगा या नहीं। लेकिन हमने इन मामलों में सहानुभूति, दूसरों (अपने पति) के सकारात्मक पक्षों को देखने और उदारता जैसे गुणों में वृद्धि देखी।"
ब्रेस्ट कैंसर से बचीं रोगियों में आध्यात्मिकता के मामले में कई रोचक तथ्य सामने आए। कई महिलाओं में जीवन और मृत्यु की जंग लड़ने के दौरान मानसिक और शारीरिक बल में वृद्धि भी पाई गई।
शर्मा ने कहा, "कैंसर की जंग में हुई जीत ने उन्हें अपने जीवन का अर्थ खोजने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके कारण उनमें से कई का एक परम शक्ति पर भरोसा कायम हुआ, तो कई ने इस तथ्य को मान लिया कि 'जो होना है होकर ही रहेगा'।"
शर्मा ने कहा कि कैंसर से जुड़े मनोवैज्ञानिक अध्ययन (साइको-ऑन्कोलोजी स्टडी) के परिणामों में इलाज के शुरुआती चरण में इससे लड़ने की प्रक्रिया और जिंदा बचे रोगी में रोग को प्रति रवैए को सक्रियता से पहचानने की बात पर भी जोर दिया गया है।
एम.एस. बड़ठाकुर, एस.के. चतुर्वेदी और एस.के. मंजुनाथ द्वारा संयुक्त रूप से किए गए इस अध्ययन के अनुसार, "रोग से बची महिला के जीवन में पोस्ट ट्रॉमेटिक ग्रोथ (पीटीजी) करने और दुनिया से उठे भरोसे को फिर से कायम करने में ये प्रक्रियाएं मददगार हो सकती हैं।"
सर्जिकल ऑन्कोलोजिस्ट और ब्रेस्ट एवं एंडोक्रीन सर्जन दीप्तेंद्र कुमार सरकार ने कहा कि कैंसर से जुड़े मनोवैज्ञानिक अध्ययन पर चर्चा बेहद जरूरी है।
इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (आईपीजीएमईआर), कोलकाता के ब्रेस्ट सर्विसिस एंड रिसर्च यूनिट के अध्यक्ष सरकार ने कहा, "स्तन कैंसर की सर्जरी से गुजर चुकी किसी 40 वर्षीय महिला की स्थिति को समझने की कोशिश कीजिए। कीमोथेरेपी के कारण उसके बाल जा चुके होते हैं। उन्हें रोग मुक्त करना चुनौती नहीं है, असली चुनौती उन्हें इससे जुड़े कलंक से मुक्त करना है।"
सरकार ने दिशा जैसे संगठनों द्वारा शुरू की गई जमीनी पहलों के बारे में बात की, जिनका मकसद लोगों तक पहुंचकर कैंसर से जुड़े कलंक को खत्म करना है।
सरकार ने कहा, "मौत रोग के कारण नहीं होती ..मन के कारण होती है। इसलिए जितना महत्वपूर्ण इलाज है, उतना ही जरूरी इससे जुड़े मानसिक पहलू और साइको-ऑन्कोलोजी भी है। अगर आप उस कलंक से पीछा नहीं छुड़ा सकते तो हर इलाज व्यर्थ है।"