Highlights
- इस विषय को लेकर 20 से अधिक विद्वानों ने पीएम को लिखा था पत्र
- AMU प्रशासन ने दोनों प्रमुख इस्लामी विद्वानों की किताबों को सिलेबस से हटाया
Aligarh Muslim University: दक्षिणपंथी विचारधारा के 20 से ज्यादा विद्वानों ने प्रधानमंत्री मोदी को एएमयू में इस्लामी विद्वानों अबुल आला मौदूदी और सैयद कुतुब के किताबों को पढ़ाने को लेकर एक पत्र लिखा। अबुल आला मौदूदी पाकिस्तान के कट्टर इस्लामिक स्कॉलर थे। मौदूदी जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक भी थे जिसकी विचारधारा इस्लामिक स्टेट की स्थापना करना था। इस पर जब विश्वविधालय प्रशासन से पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उनके यहां यूनिवर्सिटी में मौदुदी की किताबें B.A, M.A, M.Phill. और P.hd तक के सिलेबस में है। अब जाकर AMU प्रशासन ने यूनिवर्सिटी के सिलेबस से अबुल आला मौदूदी और सैयद कुतुब के किताबों को हटाया है। विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि हमने इस मामले पर उठे विवाद को और आगे बढ़ने से रोकने के लिए यह कदम उठाया है। इसे शैक्षणिक स्वतंत्रता के अतिक्रमण के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए।
धार्मिक बहुलतावाद के पैरोकार थे अबुल आला मौदूदी
गौरतलब है कि अबुल आला मौदूदी (1903-1979) एक भारतीय इस्लामी विद्वान थे जो हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए थे। वह जमात-ए-इस्लामी नामक एक प्रमुख मुस्लिम धार्मिक संगठन के संस्थापक भी थे। उनकी कृतियों में "तफहीम उल कुरान" भी शामिल है। मौदूदी ने वर्ष 1926 में दारुल उलूम देवबंद से स्नातक की डिग्री हासिल की थी। वह धार्मिक बहुलतावाद के पैरोकार थे।
इस्लामी कट्टरपंथी विचारधारा के पैरोकार थे मिस्र के स्कॉलर सैयद कुतुब
एक अन्य इस्लामी विद्वान सैयद कुतुब जिनके विचारों को एएमयू के पाठ्यक्रम से हटाया गया है, वह मिस्र के रहने वाले थे और इस्लामी कट्टरपंथी विचारधारा के पैरोकार थे। वह इस्लामिक ब्रदरहुड नामक संगठन के प्रमुख सदस्य भी रहे। उन्हें मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति गमल अब्दुल नासिर का विरोध करने पर जेल भी भेजा गया था। कुतुब ने एक दर्जन से ज्यादा रचनाएं लिखी। उनकी सबसे मशहूर कृति 'फी जिलाल अल कुरान' थी जो कि कुरान पर आधारित है।
ये किताबें ऑप्शनल सबजेक्ट्स की थी इसलिए इन्हें हटाने का कोई मतलब नहीं था -एएमयू के प्रवक्ता
AMU के प्रवक्ता उम्र पीरजादा ने कहा कि इन दोनों इस्लामी विद्वानों की कृतियां विश्वविद्यालय के वैकल्पिक पाठ्यक्रमों का हिस्सा थी, इस वजह से उन्हें हटाने से पहले एकेडमिक काउंसिल में इस पर विचार विमर्श करने की प्रक्रिया अपनाने की 'कोई जरूरत नहीं' थी।