लखनऊ: इसमें कोई शक नहीं कि सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा प्रमुख मायावती राजनीतिक और वैचारिक रूप से नदी के दो किनारे हैं लेकिन माफिया-राजनेता मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल के बसपा में विलय समेत हाल के घटनाक्रम ने इन दोनों छत्रपों की व्यक्तिगत छवि को भी आकलन के लिये जनता के सामने रख दिया है।
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अंसारी के क़ौमी एकता दल को सपा में विलीन किये जाने के अपने ही चाचा शिवपाल यादव और पिता मुलायम सिंह यादव के फैसले का डटकर विरोध किया। वहीं कानून-व्यवस्था के नाम पर सपा सरकार को घेरने का हर मौका भुनाने वाली मायावती को क़ौमी एकता दल का बसपा में विलय कराने में कोई हिचक नहीं महसूस हुई।
अखिलेश एक ऐसी पार्टी से हैं, जिस पर अक्सर गुंडों, बदमाशों और अन्य अपराधियों को शरण देने का आरोप लगता रहा है। लेकिन उन्होंने वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में एक और माफिया-राजनेता डी. पी. यादव को सपा का टिकट देने से इनकार करके लोगों की नजर अपनी अलग छवि बनायी थी।
दूसरी ओर, चढ़ गुंडों की छाती पर, मुहर लगाएं हाथी पर का नारा देने वाली बसपा की मुखिया ने ना सिर्फ क़ौमी एकता दल का बसपा में विलय कराया, बल्कि उसे तीन टिकट भी दे दिया, जिनमें मउ से माफिया मुख्तार का नाम भी शामिल है। अब इसे वक्त का तकाजा कहें या फिर मजबूरी, लेकिन मायावती के इस कदम ने उनके कट्टर समर्थकों को भी चौंका दिया।
क़ौमी एकता दल का पूर्वांचल के कुछ जिलों में खासा दबदबा माना जाता है। सपा संस्थापक मुलायम भी इस पार्टी की इसी खूबी की वजह से उसे सपा का हिस्सा बनाना चाहते थे।
बसपा नेताओं का मानना है कि अगर अंसारी परिवार के प्रभाव की वजह से पूर्वांंचल में हर सीट पर पार्टी के खाते में 5000 से 10 हजार तक वोट जुड़ गये तो पार्टी के लिये यह जबर्दस्त कामयाबी होगी।
यह भी माना जा रहा है कि मायावती ने अंसारी बंधुओं को बसपा में शामिल करके यह संदेश देने की कोशिश की है कि अखिलेश मुस्लिम विरोधी हैं, और बसपा ही इस कौम की सच्ची रहनुमा है।
क़ौमी एकता दल का पूर्वांचल की घोसी, मउ, सैदपुर, मोहम्मदाबाद, बलिया, जमानियां, गाजीपुर, मुगलसराय, वाराणसी दक्षिण, सेवापुरी, वाराणसी छावनी तथा वाराणसी उत्तर सीट पर प्रभाव माना जाता है।